बेबस जनता 'अंतिम ६ महीनों की सावधानी और अगले पाँच वर्षों तक आसानी'. पढ़कर अजीब लग रहा होगा न ? बात ही बड़ी अजीब है.हम सभी देखते आए हैं कि सत्ता में जो भी दल काबिज़ हो जाता है ,साढ़े चार साल तक तो उसे जनता से मानों कुछ लेना-देना ही नहीं होता.जब सरकार के अंतिम ५-६ महीने रह जाते हैं तब सत्ताधारी दल अपनी उपलब्धियों का पुलिंदा और गोल-मटोल बातों का पिटारा लेकर निकल पड़ते हैं भोली-भाली जनता कोमनाने.
और जनता भी मानों गाय हो जाती है. पिछले चार-साढ़े चार वर्षों को भूलकर अंतिम ५-६ महीनों में किये गए वादों के झाँसे में आ जाती है . और चुन लेती है उनको जिन पर उसे कभी बहुत गुस्सा आता था.मीठी -मीठी बातों में आकर जनता पिछले सभी ग़म भूलकर दुबारा अपना कीमती वोट किसी को भी बिना सोचे-समझे दे देती है और जब दल दुबारा सत्ता में काबिज़ हो जाता है तब अपने आपको ४-५ सालों तक के लिए निश्चिन्त मानकर जनहित और जनवाणी को नज़रंदाज़ कर बैठता है . और जनता बेबस .लाचार होकर खुदको ठगा हुआ महसूस करती है पर तब कुछ नहीं हो सकता .उसे अगले चुनाव तक अपने दर्द को पीना पड़ता है. ताज्जुब की बात तो यह है कि जब चुनाव का वक़्त आ जाता है तब जनता दुबारा झाँसे में आकर अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने को तैयार रहती है.
लच्छेदार,चतुराई भरी बातों के शब्दजाल में आसानी से फँस जाने ही में उसे बड़ा मज़ा आता है. बाद में फिर वही पछतावे का रोना-पीटना शुरू.कि भईया गलती हो गई गलत आदमी को चुन लिया. जो अनजाने में गड्ढे में गिरे उसे तो नादान कहा जा सकता है.लेकिन जो खड्डा देखने के बाद भी खड्डे में गिर जाये उसे मैं क्या कहूँ ? वे स्वयं अपने लिए उचित विशेषण चुनने के लिए लोकतंत्र में स्वतंत्र हैं. अब जनता को सोचना है भाई, कि उसे भाषण चाहिए या एक्शन ? क्योंकि उत्तर-प्रदेश के सन्दर्भ में यह सब शुरू हो चुका है. चुनाव आचार संहिता लागू होने से पहले किसी खास दल के नेता और उसकी उपलब्धियों को बार-बार और ज्यादातर दिखाने वाली ख़बरों से भी आम जनता को सतर्क रहने की जरुरत है. क्योंकि कई बार देखने में आया है कि यह सब पेड न्यूज़ का हिस्सा है. यानी पैसा देकर ख़बरों का प्रसारण करवाना .इस तरह की बातों से आम जनता वाकिफ नहीं होती और जल्द ही झाँसे आ जाती है. जनता को ऐसी ख़बरों पर पैनी नज़र रखनी चाहिए.यहाँ दिल से नहीं दिमाग से काम लेने की ज़रूरत होती है.
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