सोमवार, 14 नवंबर 2011

6 MAHINON KI SAWDHANI ,5 VARSHON KI AASANI

     बेबस जनता                                                                                                                                                                                                                  'अंतिम ६ महीनों की सावधानी और अगले पाँच वर्षों तक आसानी'. पढ़कर अजीब लग रहा होगा न ? बात ही बड़ी अजीब है.हम सभी देखते आए हैं कि सत्ता में जो भी दल काबिज़ हो जाता है ,साढ़े चार साल तक तो उसे जनता से  मानों  कुछ लेना-देना ही नहीं होता.जब सरकार के अंतिम ५-६ महीने रह जाते हैं तब सत्ताधारी दल  अपनी उपलब्धियों का पुलिंदा और गोल-मटोल बातों का पिटारा लेकर निकल पड़ते हैं भोली-भाली जनता कोमनाने.
और जनता भी मानों गाय हो जाती है. पिछले चार-साढ़े चार वर्षों को भूलकर अंतिम ५-६ महीनों में किये गए वादों के  झाँसे में आ जाती है . और चुन लेती है उनको जिन पर उसे कभी बहुत गुस्सा आता था.मीठी -मीठी बातों में आकर जनता पिछले सभी ग़म भूलकर दुबारा अपना कीमती वोट किसी को भी बिना सोचे-समझे दे देती है और जब दल दुबारा सत्ता में काबिज़ हो जाता है तब  अपने  आपको ४-५ सालों तक के लिए निश्चिन्त मानकर जनहित और जनवाणी को नज़रंदाज़ कर बैठता है . और जनता बेबस .लाचार होकर खुदको ठगा हुआ महसूस करती है पर तब कुछ नहीं हो सकता .उसे अगले चुनाव तक अपने दर्द को पीना पड़ता है. ताज्जुब की बात तो यह है कि जब चुनाव का वक़्त आ जाता है तब जनता दुबारा झाँसे में आकर अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने  को तैयार रहती है.
लच्छेदार,चतुराई भरी बातों के शब्दजाल  में  आसानी से फँस जाने ही में उसे बड़ा मज़ा आता है. बाद में फिर वही पछतावे का रोना-पीटना शुरू.कि भईया गलती हो गई गलत आदमी को चुन लिया. जो  अनजाने में गड्ढे में गिरे उसे तो नादान कहा जा सकता है.लेकिन जो खड्डा देखने के बाद भी खड्डे में गिर जाये उसे मैं क्या कहूँ ? वे स्वयं अपने लिए उचित विशेषण चुनने के लिए लोकतंत्र में स्वतंत्र हैं. अब जनता को सोचना है भाई, कि उसे भाषण चाहिए या एक्शन ? क्योंकि उत्तर-प्रदेश के सन्दर्भ में यह सब शुरू हो चुका है. चुनाव आचार संहिता लागू होने से पहले किसी खास दल के नेता और उसकी उपलब्धियों को बार-बार और ज्यादातर दिखाने वाली ख़बरों से भी आम जनता को सतर्क रहने की जरुरत है. क्योंकि कई बार देखने में आया है कि यह सब पेड न्यूज़ का हिस्सा है. यानी पैसा देकर ख़बरों का प्रसारण करवाना .इस तरह की बातों से आम जनता वाकिफ नहीं होती और जल्द ही झाँसे आ जाती है. जनता को ऐसी ख़बरों पर पैनी नज़र रखनी चाहिए.यहाँ दिल से नहीं दिमाग से काम लेने की ज़रूरत होती है.

शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

ANSHAN ABHI BAKI HAI

 मातृभाषा   और  देश का विकास                                                                                                                        अन्ना के आन्दोलन ने देश की जनता को जगा दिया है.  राजनीतिक दलों को जनता की असल ताकत का अहसास भी शायद अब हो गया होगा.भारत में इस तरह की जागरूकता के लिए जरुरी  है आम जनता की सक्रिय राजनीतिक भागीदारी और उनका राजनीतिक शिक्षण .इसके लिए जरुरी है कि कानूनी जानकारियाँ आम जनता को अपनी मातृभाषा में आसानी से उपलब्ध हों. संसद में क्या हो रहा , न्यायालयों में क्या हो रहा है ? इन महत्त्वपूर्ण बातों की सम्पूर्ण जानकारी आम जनता को नहीं हो पाती. विभिन्न प्रकार की जनकल्याणकारी योजनाओं की जानकारी और उनका लाभ उठाने की प्रक्रिया तक आम आदमी को नहीं पता .क्योंकि इन बातों की विस्तृत जानकारी आम आदमी को अपनी मातृभाषा में नहीं मिल पाती.आम आदमी के सुविधा के लिए असंख्य  NGO देश भर में फैले हुए हैं. पर क्या आम आदमी को पता है कि NGO किस चिड़िया का नाम है . जागरूकता  लाने लिए के सबसे जरुरी है कि हमारी आवाज़ हर आम और ख़ास तक पहुँचे .और ऐसा करने में कोई विदेशी भाषा  हमारी थोड़ी सहायता ज़रूर कर सकती है पर हमारे मकसद को पूरा नहीं कर सकती. जिस दिन सभी महत्त्वपूर्ण  जानकारियाँ आम जनता को अपनी मातृभाषा में मिलने लगेंगी  उस दिन से हमारा देश तरक्की की सीढ़ियाँ दर सीढ़ियाँ चढ़ता चला जाएगा. किसी भी भ्रष्टाचारी का बच निकलना लगभग असंभव हो जाएगा. जब जानकारी होगी तब आम जनता नियमों का हवाला देकर हर भ्रष्टाचारी से हिसाब माँग सकेगी,न्यायालय और संसद में किस कानून के अंतर्गत क्या फैसला हो रहा है और क्यों हो रहा है , यह  समझ पायेगी. संसद में पेश किये जाने वाले विधेयकों के मसौदों  और उसके  कानून बनने की प्रक्रिया के लिए निर्धारित नियमों के बारे में जानकारी   होने पर आम जनता लोकपाल बिल और जनलोकपाल बिल जैसे फर्क  जान पाएगी. जो कि भारत देश के सुनहरे भविष्य के लिए बहुत ही बेहतर होगा.अभी होता यही है कि आम जनता को महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ उपलब्ध  ही नहीं होती . यदि होती भी हैं तो बहुत थोड़ी या कामचलाऊ ही होती हैं. अधिक जानकारी के लिए उसे अंग्रेजी की शरण में जाने की सलाह दी जाती है. अब यह  तो हम सभी जानते ही हैं कि हमारे देश के करोंड़ों  लोगों को अपनी मातृभाषा तक में लिखना-पढ़ना नहीं आता. अंग्रेज़ी की जानकारी तो दूर की बात  है.बिना अपनी मातृभाषा को महत्त्व दिए हम कानूनी  दांवपेच को समझ नहीं पाएँगे. देश को भ्रष्टाचारियों के हाथों बस बेबस लूटता देखते रहेंगे. इसके अभाव में हम भ्रष्टाचार को कुछ समय के लिए रोक जरुर सकते हैं पर समाप्त नहीं कर सकते. होना यह चाहिए कि राष्ट्रीय सन्दर्भ में मातृभाषा और अंतर्राष्ट्रीय सन्दर्भ में अंग्रेज़ी या अन्य विदेशी भाषा का प्रयोग किया जा सकता है.राष्ट्रीय सन्दर्भ में भी  ज़रूरत के अनुसार अंग्रेज़ी का इस्तेमाल किया जा सकता है  पर सेवक के रूप में मालिक के रूप में नहीं. हम सभी  जानते हैं कि अंग्रेज़ी की संवैधानिक स्थिति एक सेविका की है स्वामिनी की नहीं . पर आज यह स्वामी बन बैठी है. यही स्थिति सभी समस्याओं की जड़  है. हिंदी के कवि भारतेंदु  ने बहुत पहले ही इस स्थिति को समझ लिया था. इसलिए उनका कहना था -- 
"निज भाषा उन्नति आहे  सब उन्नति को मूल." अर्थात  अपनी भाषा की तरक्की होने पर ही सब तरह की तरक्की संभव हो पाती है.

शनिवार, 23 जुलाई 2011

SHIKSHA KA ADHIKAR

हमारे देश में सरकारी विद्यालयों की हालत किसी से छिपी नहीं है. प्रत्येक SECTION में ७०-८० बच्चे होना आम बात है .ऐसे में किस प्रकार एक शिक्षक प्रत्येक बच्चे पर सही तरीके से ध्यान दे पायेगा , इसका अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है.आमतौर पर प्रत्येक शिक्षक को 5 SECTION मिलते हैं .अब यदि एक SECTION में ७०-८० बच्चे हों तो प्रत्येक शिक्षक के पास ३५०-४०० बच्चे होंगे .उन बच्चों का रिकॉर्ड रखना,उनकी अभ्यास पुस्तिकाएँ जाँचना आदि कार्य उसे करने होते हैं.इसके आलावा छात्रों के समुचित विकास के लिए पाठ सहगामी क्रियाएँ भी आवश्यक होती हैं .इतना सारा काम और प्रत्येक बच्चे का समुचित आंकलन कर पाना लगभग असंभव है .फिर भी   सरकार को शिक्षकों की भर्ती और छात्र -शिक्षक के आदर्श अनुपात को सुनिश्चित करने में  कोई चिंता  नहीं लगती.जो कि RTE के लिए गंभीर स्थिति है. शिक्षकों की नियुक्ति प्रक्रिया में ही बरसों लग जाते हैं . अब TET के बाद  शिक्षकों की और भी किल्लत हो सकती है .एक तरफ सरकार का तर्क है कि नौकरी है पर शिक्षक नहीं मिलते दूसरी तरफ TET के बाद तो शिक्षकों कि संख्या और भी सीमित हो जाएगी.क्या  सारी जिम्मेदारी शिक्षकों की ही है कि वो लगातार अपनी योग्यताओं को प्रमाणित करते रहें .वास्तविकता तो ये है कि जब तक नियुक्ति परीक्षाओं में नकारात्मक अंकन नहीं होगा तब  तक शिक्षा के क्षेत्र  में मात्र तुक्का  लगाने  वाले और स्पीड टेस्ट में माहिर लोग ही जमे रहेंगे. CTET  के माध्यम से शिक्षकों को योग्य मानने वाले क्या ज़रा बताएँगे कि मात्र ९० मिनट  में किस प्रकार सही तरीके से  १५० सवाल हल किये जा सकते हैं ? मतलब प्रत्येक सवाल के लिए मात्र 36 सेकंड का वक्त  .और प्रश्न भी ऐसे कि जिनमें बड़े-बड़े पैराग्राफ भी शामिल हैं . अब ऐसे में क्या कोई अपनी योग्यता प्रमाणित करने के लिए बुध्दि लगाएगा  या तुक्का ?यदि बुध्धि लगाये तो  प्रश्न छूटें और अगर तुक्का लगाये तो उसकी  योग्यता  ही संदेह  के घेरे में आ  जाये  .शिक्षकों की योग्यता को सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी है कि प्रश्नपत्रों में नकारात्मक अंकन किया जाये .यदि नकारात्मक अंकन होगा तो वही व्यक्ति चुना जायेगा जिसको विषय का पूर्ण ज्ञान होगा  न कि तुक्का लगाने वाला .साथ ही ज़रूरी नहीं कि जो व्यक्ति अच्छा  लिख सकता है बड़े-बड़े उत्तर दे सकता है वह अच्छा शिक्षक भी हो  .यह  तो स्पीड टेस्ट है निर्धारित  समय में जिसने लिख दिया वो योग्य हो गया और  जो नहीं लिख पाया वो अयोग्य.अब दूसरा पहलू भी देखते हैं कई बार किसी के पास दुनिया भर का ज्ञान होता है और वह एक कुशल वक्ता भी होता है.परन्तु स्पीड टेस्ट में वह निर्धारित समय में लिख नहीं पाता और उसकी सारी काबिलियत पर प्रश्नचिह्न लग जाता है.CCE में तो बच्चों के लिए प्रावधान कर दिया गया कि वह FORMATIVE
ASSESSMENT ( रचनात्मक आंकलन) जिसमें कि लिखने  का कम और बोलने का एवं करने का कार्य अधिक  है में अच्छे  अंक प्राप्त कर अपनी योग्यता प्रमाणित कर सकता है. शिक्षकों कि नियुक्ति के सन्दर्भ में भी यही व्यवस्था लागू  की जा सकती है जिसमें विषय से सम्बंधित बहुवैकल्पिक प्रश्न दिए जा सकते हैं .साथ ही इसमें नकारात्मक अंकन अवश्य हो जिससे उपर्युक्त योग्यता रखने वाले व्यक्ति एवं विषय ज्ञान रखने वाले योग्य व्यक्ति ही चुने  जा सकेंगे. जो कि शिक्षा और शिक्षार्थियों  के लिए बेहतर स्थिति हो सकती है. उदाहरण के लिए पब्लिक SCHOOLS में  मात्र साधारण परीक्षा एवं साक्षात्कार  के आधार पर योग्य शिक्षक नियुक्त किये जाते हैं . और उनकी शिक्षा  की गुणवत्ता किसी से छुपी नहीं है. वहाँ सबसे अधिक ध्यान व्यक्ति के व्यावहारिक ज्ञान पर दिया जाता है, सिद्धांतों पर नहीं. ज़रूरत इच्छाशक्ति की है और सही रूप से प्रावधानों को लागू  करने की. AAJ शिक्षा को सिद्धांतों  की नहीं व्यवहार  की ज़रूरत है. जब तक लोग अपने निजी स्वार्थ को  त्याग कर देश के  लिए  नहीं सोचेंगे ,देश से प्रेम नहीं करेंगे तब तक योजनाओं के अपेक्षित परिणाम शायद ही मिल सकेंगे.

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

JANTA JAB APNI PAR UTAR AATI HAI

जनता जब अपनी पर उतर आती है
तब वो हद से गुज़र जाती है .
अच्छे -अच्छों की हिल जाती हैं कुरसियाँ
शैतान की रूह तक काँप जाती है .

जो समझते हैं जनता को कठपुतली सा -2
जनता उनको छठी का दूध याद दिलाती है .

जनता अग़र राजा बना सकती है,
तो जनता ही  सड़क पर भी  लाती है .

यह बात नहीं ज़रा सी है -२
अभी तो यह शुरुआत है ,फिल्म का   ट्रेलर है -२
 पूरी  पिक्चर तो अभी बाकी है .
अन्ना  हज़ारे ने की है जिस जंग की शुरुआत -२
आगे इसकी जड़े समस्त भारत तक जाती हैं.
                                                                    
                                                ....................सुरेन्द्र   कुमार .........

ANNA HAZARE :SANGHARSH KE AGRADOOT

अब फिरेंगे भ्रष्टाचारी दर -दर मारे,
क्योंकि आ गए हैं अन्ना हजारे.
अब ज़रूर बदलेगा भारत ,
जाएँगे भ्रष्टाचारी जेल सारे.
पास होकर रहेगा जन लोकपाल विधेयक,
क्योंकि भारत साथ है अन्ना तुम्हारे .
अब हमें एकजुट होना ही होगा ,
तभी बदलेंगे कल के नज़ारे .
हम अगर आज चुप रह गए ,
तो कल भ्रष्टाचार के सामने बेबस होंगे ,
बच्चे हमारे .
अब कोई राजनेता नहीं सुधारेगा भारत को ,
हमारा भारत है ,
आओ हम ही इसे सुधारें .
                                                                .......सुरेन्द्र कुमार

                                       


बुधवार, 6 अप्रैल 2011

Saath Nibhana Saathiya : stree ki adarsh chavi par ek sawaliya nishan

स्टार प्लस का यह धारावाहिक भारतीय संस्कृति पर एक कलंक है .इस तरह के धारावाहिकों को प्रसारण की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए .यह धारावाहिक लगातार स्त्री की नकारात्मक छवि को ही दिखाता रहता है . इस तरह के धारावाहिक समाज में स्त्रियों की गलत छवि प्रस्तुत करते हैं .माना कि समाज में कुछ स्त्रियाँ  कूटनीति ,षड़यंत्र में भी शामिल है .पर इसका यह मतलब तो नहीं कि कुछ प्रतिशत स्त्रियों की नकारात्मकता का खामियाजा असंख्य स्त्रियों को भुगतना पड़े ? यह भारतीय समाज के लिए बिलकुल भी उचित नहीं कहा जा सकता .इस तरह के धारावाहिकों में स्त्री की आदर्श छवि को दरकिनार कर षड़यंत्र और राजनीति करती स्त्री को ही टी आर  पी की दौड़ में superhit फार्मूला माना जा रहा है .ऐसे धारावाहिक समाज में स्त्रियों के प्रति नकारात्मक सन्देश को प्रसारित करते हैं .जिससे  परिवार में स्त्रियों के  आदर और अहमियत में कमी  आ सकती है और  परिवार टूट  सकते हैं .हद तो तब हो जाती है जब बात को कुछ ज्यादा ही बढ़ा -चढ़ाकर पेश किया जाता है .चलो मान भी लेते हैं कि समाज में ऐसा होता तो मीडिया का फ़र्ज़ हैं वह उसको ज्यादा तूल न देकर उसका इस्तेमाल समाज का परिष्कार करने के लिए करे, न कि छोटी बात को ही धारावाहिक में लम्बा खींच दिया जाये .यह सर्वविदित है कि  मीडिया की सामग्री का लोग अनुकरण करते है .मीडिया चरित्रों  को वो अपना आदर्श मानकर चलते हैं और उन्हीं के जैसा आचरण करने का दिन -रात प्रयास करते हैं .इसलिए अपने फ़र्ज़ को ध्यान में रखते हुए मीडिया को ऐसे चरित्र गढ़ने चाहिए जो समाज को सही दिशा दे सकें .केवल टी आर  पी के लिए धारावाहिकों के कंटेंट को सत्य से दूर बढ़ा-चढ़ाकर ,तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करना  भारतीय सामाजिक व्यस्था को गर्त में धकेलने जैसा है.भारतीय  काव्यशास्त्र साहित्य के कई प्रयोजन बताये गए हैं  जैसे धर्म ,अर्थ , काम ,मोक्ष .आज मीडिया को  धर्म और मोक्ष से कुछ लेना देना नहीं रह गया .आज के मनोरंजन चैनल केवल अर्थ (धन) को ही अपना प्रयोजन या उद्देश्य मान बैठे हैं .

सोमवार, 14 मार्च 2011

BABA RAMDEV : EK NIRBHIK VAKTA

इंडिया टी वी पर प्रसारित बाबा रामदेव का ओजस्वी भाषण भारत के सुनहरे भविष्य का संकेत देता है . उनके विचारों में यदि किंचित स्वार्थ का अंश ना हो तो ये भारत में क्रांतिकारी परिवर्तन करने  और भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेकने में अहम भूमिका अदा कर सकते हैं .भारत को आज ईमानदार , निस्वार्थ एवं समर्पित लोगों की जरूरत है .राजनीति में आकर सत्ता -सुख भोगने वालों की नहीं .जनता को यदि स्वयं  और अपने बच्चों को एक 
बेहतर कल देना है तो हमें अपने आज को गंभीरता से लेना ही होगा .केवल बुराइयाँ करने से कुछ होने वाला नहीं .
हमें आगे आकर परिवर्तन को सहज भाव से ग्रहण करना होगा और उसका स्वागत करना होगा . मतदान करने वाले दिन को जब तक हम अवकाश और मस्ती का दिन समझते रहेंगे तब तब तक देश की हालत में कोई सुधार
होने वाला नहीं .यही वो दिन होता है जिस दिन हम अपने आने वाले पाँच सालों के भविष्य के स्वरुप का निर्धारण करते हैं . आज स्थिति यह है कि इस दिन को हम गंभीरता से लेना शायद ज़रूरी नहीं समझते .फिर बौखलाहट में शिकायत करते रहने से कोई फायदा होने वाला नहीं .रामदेव जैसे लोग पहले भी इस देश में आते रहे हैं और क्रांतिकारी   परिवर्तन के बड़े-बड़े दावे भी करते रहे हैं .मुझे लगता है चांस लेने में क्या जाता है .हमे एक बार बाबाजी समर्थित राजनीतिक विकल्प को देश की सत्ता का का विकल्प बनने का अवसर देना ही चाहिए .बड़ी-बड़ी पार्टियों के नाम पर आंख बंद करके वोट देने की मानसिकता में अब सुधार की ज़रूरत है. वास्तव में देश को पार्टी की नहीं सही, समर्पित व्यक्ति की ज़रूरत है .राजनीति का क्षेत्र  इतना घटिया बन चुका है कि आज राजनीति में कोई भी ईमानदार आदमी आना ही नहीं चाहता .अगर भूले भटके आ भी जाता है तो बड़ी पार्टियाँ उसे टिकट नहीं देती. निर्दलीय को गंभीरता से लेने की हमारी मानसिकता नहीं है .इस कारण बेचारा एक ईमानदार आदमी कदम पीछे हटाने पर मजबूर हो जाता है .बड़ी पार्टियों के मोह में हम अपने देश को पता नहीं किस दिशा में मोड़ते चले जा रहे हैं .बड़ी पार्टियों के लिए आम आदमी एक अदद वोट से ज्यादा कुछ भी नहीं होता.जिसकी याद उन्हें पांच साल में सिर्फ एक बार आती है .शायद इसीलिए हिंदी के मशहूर  कवि सुदामाप्रसाद
पाण्डेय 'धूमिल' को कहना पड़ा कि जनता एक शब्द है या कि  भेड़ जो दूसरों की ठण्ड  को दूर करने के लिए  अपनी  पीठ  पर ऊन की   फसल ढो रही है .अब फैसला हमारे  ऊपर है कि हम  कब तक खुद को भेड़ बना कर रखना  चाहेंगे . इतने सारे घोटाले हमारे  सामने आए , देश  की  इज्ज़त  दुनिया की नज़र में ख़राब हुई , ललिता पार्क  लक्ष्मी nagar delhi में न जाने कितने लोग अवैध इमारत ढहने से असमय काल का ग्रास बन गए. आम  आदमी  या तो  मरने  के  लिए  पैदा हुआ  है या  रैलियों  में भीड़  बनने के  लिए  या  फिर  वोट  देकर  सत्ता  लोभियों को  विभिन्न तरह  के  सुख  संग्रह करने का अवसर  देने के लिए  उसका अस्तित्व  है. आज ज़रूरत है जनता को  जागरूक होकर सही  फैसला  लेने की . हमें किसी के  बहकावे  में न  आकर सही  व्यक्ति  को देश की  बागडोर  सौपनी  चाहिए  .आँख  बंद  करके  बड़ी-बड़ी  पार्टियों  को  नहीं .सत्ताधारियों को आम  आदमी  के  बारे  में सोचने  के  लिए  मजबूर  होना  ही  पड़ेगा अगर हम अपनी  ताकत  के  बारे  में  गंभीरता  से  सोचना  शुरू  कर  दें.   पैसा  लेकर  नेताओं  के पक्ष में  मतदाताओं की मानसिकता  को  मोड़ने  वाली  ख़बरों से  अब  सावधान होने की  ज़रूरत  है .बाबा  रामदेव  जैसे लोग  यदि  इस  परिवर्तन  के  अग्रदूत  बनकर सामने  आना  चाहते  हैं  तो  इसमें  बुराई ही क्या है ? किसी  न  किसी  को  तो  आगे  आना ही  पड़ेगा  . ये  तो  हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है कि हम आँख बंद  करके  किसी पर भी  भरोसा  न  करें .बाबा  रामदेव  की मानसिकता  भी  यदि  सत्ता  सुख की नहीं देश सेवा की है तो  देश के  भविष्य  के  लिए  अच्छा हो  सकता है .इंडिया  टी वी पर  उनकी  निर्भय  और  सटीक ,तथ्यपरक वाणी लोगों  को  जागरूक  और  निडर  होने  का सन्देश   देती  है.