रविवार, 8 दिसंबर 2013

बदलाव की धारा

        बदलाव का आगाज़ 
दिल्ली में आम आदमी पार्टी को मिला जनसमर्थन किसी बड़े राजनीतिक 
बदलाव की ओर संकेत है।  ये इस बात की ओर इशारा है कि अभी तक जनता दो में से किसी एक को ही चुनती आ रही थी , चाहे उसे दोनों पसंद  हो या नहीं। क्योंकि जनता के पास अन्य ईमानदार विकल्प ही मौजूद नहीं थे। लेकिन जैसे ही उसे विकल्प मिला उसने (जनता ने) अपनी वास्तविक इच्छा जाहिर कर दी। दिल्ली का चुनाव परिणाम इस दृष्टि से भी महत्त्व पूर्ण है कि न्यूनतम साधनों से भी अधिकतम परिणाम  प्राप्त किये जा सकते हैं। चुनावों में बढ़ते धन और बल के प्रभाव के बीच आम आदमी पार्टी की शानदार उपस्थिति राजनीति को एक नयी दिशा देती है।
जो जनता खुले तौर पर अपना गुस्सा प्रकट नहीं कर पा रही थी उसे अपने गुस्से की अभिव्यक्ति के लिए एक विकल्प मिल गया है। उम्मीद है यह बदलाव ईमानदार और ईमानदारी को साथ लेकर चलते हुए दिल्ली से आगे राष्ट्रीय स्तर पर  भी व्यापक जनसमर्थन जुटाते हुए एक नए भारत का निर्माण करेगा।  आज भारत इंडिया और भारत में बँट गया है।  एक शासक और दूसरा शासित की भूमिका में है। दोनों के बीच दूरी बढ़ती ही जा रही है। आज इस दूरी को समाप्त करने की ज़रूरत है। आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी भारत शिक्षा,स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं पर भी काबू नहीं कर पाया क्योंकि देश में जो विकास हुआ वह देश केंद्रित कम और चुनाव केंद्रित ज्यादा रहा। यह हम सभी जानते है कि देश केंद्रित विकास चुनाव के पांचों वर्ष सामान रूप से चलता रहता है जबकि चुनाव केंद्रित विकास चुनाव के नजदीक आते ही शुरू होता है बाकी समय उसे देश से कुछ लेना-देना नहीं होता।जनता को भी चाहिए कि चुनाव के समय व्यक्ति को देखे पार्टी को नहीं। पार्टी को देखते समय हम भावनाओं में भी बह सकते हैं। इसलिए दिमाग से काम लेने की  ज़रूरत है। देश की जनता को पता होना चाहिये कि राजनेता चुनाव जीतने के लिए अपने तेज़ दिमाग का ही इस्तेमाल कर जीत हासिल करने की  रणनीतियां बनाते हैं। और जनता से भावुक होकर मतदान करने की  उम्मीद करते है। जनता को भी  चाहिए कि वह वह भावनाओं में न बहकर भाषा,जाति ,धर्म ,संप्रदाय ,अमीर -गरीब की सोच से ऊपर उठकर एक जिम्मेदार ,समझदार भारतीय होने का गौरव धारण करते हुए अपने दिल की  नहीं दिमाग की  सुनते हुए  सही व्यक्ति को अपना जनप्रतिनिधि चुने। प्रमाण के तौर पर आप तीस-चालीस वर्ष पुरानी कोई भी मूवी देख लीजिये आपको महँगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त आम आदमी की पीड़ा सुनाई दे जायेगी।  और आज भी आम आदमी इसी से परेशान हैं।  तो क्या परिवर्तन हुआ इतने वर्षों में ? आप खुद ही सोच लीजिये।  अब भावनाओं में बहने की  नहीं दिमाग से सही फैसले का समय है। अब  मौन रहने का नहीं, सवाल करने का समय है। 

सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

सहायक आचार्य :

   सहायक आचार्य बनने  का सपना 
विश्वविद्यालयों द्वारा सहायक आचार्यों की नियुक्ति हेतु जो स्क्रीनिंग का तरीका अपनाया जा रहा है। उसे  कतई  उचित नहीं ठहराया जा सकता। इसके मुताबिक न्यूनतम योग्यता रखने वाला योग्य  उम्मीदवार भी अयोग्य हो जाता है,अगर उसने पीएचडी /एम. फिल/अनुसन्धान कार्य/प्रकाशन कार्य  न किया हो। एसोसिएट  प्रोफ़ेसर /प्रोफ़ेसर की  नियुक्ति के लिए तो यह स्क्रीनिंग उचित एवं अनिवार्य ठहराई जा सकती है। परन्तु शिक्षण में किसी योग्य उम्मीदवार के प्रवेश करने के स्तर पर यह स्क्रीनिंग एक बाधा  से अधिक कुछ  नहीं है। यदि इसे उचित मान भी लिया जाये तो इससे  'यू जी सी नेट'  जैसी योग्यता परीक्षा की अनिवार्यता 
और महत्त्व पर ही सवालिया निशान लग जायेगा। क्योंकि इस स्क्रीनिंग में इस परीक्षा को न्यूनतम महत्त्व दिया गया है।  उदाहरण के लिए-  नेट जे आर एफ के लिए ३/५ अंक स्क्रीनिंग में दिए गए हैं ,वहीँ  एम् फिल/पीएचडी धारकों को  अधिकतम १७ अंक दिए जा रहे हैं। इसका सीधा सा अर्थ है कि यदि आपके पास एम् फिल ,पीएचडी की  उपाधि है , आपने अनुसन्धान कार्य किया है , आपकी पुस्तके प्रकाशित हुई हैं तो  आपके चयन के अवसर ज्यादा हैं। मात्र स्नाकोत्तर उपाधि और नेट के आधार पर आपका सहायक आचार्य बनने का सपना मात्र दिवास्वप्न ही है। लगता है कि  ऐसा मान लिया गया है कि अनुसन्धान कार्य का अनुभव रखनेवाला, पुस्तकों का लेखक ही विश्वविद्यालय स्तर  पर शिक्षक  बनने  का असल हकदार है अन्यथा इस तरह की  स्क्रीनिंग की  बजाय एक लिखित एवं नकारात्मक अंकन के प्रावधान वाली परीक्षा के आधार  पर योग्य उम्मीदवारों  को साक्षात्कार हेतु चुना जा सकता था।  हम सभी जानते हैं कि बारहवीं  तक पढ़ाने के लिए बी एड  अनिवार्य योग्यता है।  मात्र एक  कक्षा ऊपर आते ही अनुसन्धायकों का महत्त्व अचानक बढ़ जाता है और  शिक्षण -प्रशिक्षण योग्यता का घट जाता है।   अनुसंधायक अच्छे शिक्षक हो सकते है।  पर इसका यह तात्पर्य नहीं  कि स्नातकोत्तर उपाधि रखने वाला अच्छा शिक्षक नहीं हो सकता जो उसे सबसे निचले पायदान पर डाल  दिया गया है। यह वास्तव में अवसर दिए बिना किसी को अयोग्य मान लेने जैसा है।  अगर हम दिल्ली विश्वविद्यालय के सन्दर्भ में देखें तो हम पाते हैं कि यहाँ पर प्रवेश ही अधिकतम प्राप्तांक के आधार  पर होते हैं।  प्रत्येक शिक्षा बोर्ड /विश्वविद्यालय के  उच्चतम प्राप्तांक धारकों को ही प्रवेश मिल पाता  है। मतलब  भारत भर के बोर्ड/विश्वविद्यालयों के चुनिंदा विद्यार्थी ही प्रवेश पाने में सक्षम हो पाते है।  ऐसे में कई मायनों में वे सब पहले से ही मेहनती , बुद्धिमान होते हैं।  उनमें आप कितना  सुधार लायेंगे और क्या पढ़ाएंगे ? पब्लिक स्कूल से निकले ये विद्यार्थी पहले से ही साधन संपन्न होते हैं।  जिनको कि हम इंग्लिश माध्यम से पढ़ाते  हैं। जिनमें  वास्तव में सुधार की  जरुरत है  वे है हिंदी माध्यम के छात्र।   जिनको पढ़ाने  में ही अनुसंधायकों की  वास्तविक योग्यता का परीक्षण हो सकता है ,उनके लिए तो पुस्तकें तक उपलब्ध नहीं करवाई जाती। इन अभावग्रस्त लोगों को ही ज्ञान के भण्डार की असल ज़रूरत है क्योंकि 'अभाव में ही  भाव पैदा होता है।'      इस कसौटी पर ही अनुसंधायकों के ज्ञान का परीक्षण हो सकता है। बाकायदा इस पर अनुसन्धान कार्य भी होना  चाहिए  कि  "एक अनुसंधकर्ता ही प्रभावशाली सहायक आचार्य हो सकता है।" 
आज वास्तव में इस परिकल्पना के परीक्षण एवं शोध द्वारा इसकी सार्थकता  सिद्ध करने की  ज़रूरत है। अधिक जानकारी के लिए नीचे दिए गए  लिंक पर क्लिक करें :   http://duugrg.du.ac.in/du/index.php?page=rules

रविवार, 29 सितंबर 2013

जनता की भाषा और भारत की तरक्की

  भारत के विकास कि सबसे बड़ी बाधा है. लोगों की मातृभाषा की बजाय अंग्रेजी भाषा में महत्त्वपूर्ण जानकारी का उपलब्ध होना .जब लोगों को जानकारी ही नहीं होगी .तो वो भला किससे और किस हक की बात कर पाएंगे?

उच्च शिक्षा पर अंग्रेजी काबिज है और आम इंसान अपनी मातृभाषा में 
ही उलझा हुआ है. मातृभाषा में उच्च शिक्षा उपलब्ध न होने का ही परिणाम है कि तकनीकी विषयों में रुचि रखने वाला और तकनीक के व्यावहारिक पक्ष का गहन जानकार बालक इंजीनियर बनने की बजाय 
किसी मैकेनिक की दुकान पर २००० रु महीने पर अपने भविष्य को 
उज्जवल बनाने का असफल प्रयास कर रहा होता है. 
गार्डनर के  MULTIPLE INTELLIGENCE  सिद्धांत की यहाँ पर हवा निकल 
जाती है. जब तक अंग्रेजी के जानकार भारतीय, अपने देश की जनता के हित के लिए विदेशी ज्ञान -विज्ञान को भारत की भाषाओं में उपलब्ध 
करवाने में देशभक्ति की अनुभूति नहीं करेंगे तब तक ज्ञान-विज्ञान और
भारत की तकनीकी प्रगति में आम भारतीय मात्र एक उपभोक्ता ही बना रहेगा. उत्पादन का भागीदार कभी भी नहीं बन पाएगा. आज भारतीय 
बाज़ार पर चाइना काबिज होता जा रहा है. दीवाली के सामान ,रक्षाबंधन की राखियां ,होली की पिचकारियाँ .क्या ये सब हम खुद नहीं बना सकते ?
या दुनिया के लिए बस बाज़ार ही उपलब्ध करवाते रहना हमारा काम रह गया.उच्च शिक्षण संस्थानों के शिक्षक पूर्ण रूप से अंग्रेजी भक्त बने हुए हैं.
समझ नहीं आता कि ये सम्माननीय समूह अंग्रेजी का प्रसार कर रहा है या ज्ञान -विज्ञान का ? इन संस्थानों में मातृभाषा के विद्यार्थियों को उन्हीं 
के हाल पर छोड़ दिया जाता है. भई, ये लो अंग्रेजी में लिखे नोट्स ,बस हम इतना ही कर सकते हैं. आगे तुम्हे देखना है कि इन्हें कैसे समझोगे. क्लास में तो इंग्लिश में ही लेक्चर होंगे. हाँ,परीक्षा हिंदी में या अपनी भाषा में 
दे सकते हो. अब कितनी विकट स्थिति है ये. एक शिक्षक जो कि उस विषय का विशेषज्ञ है , अपना पल्ला झाड रहा है. जबकि उसे ज्यादा ही 
जानकारी है.बस ज़रूरत है तो देशप्रेम और इच्छाशक्ति की. जब भारतीयों को ही अपनी भाषा बोलने में झिझक महसूस होने लगे तो किसी विदेशी 
को इन सबके लिए जिम्मेदार ठहराना उचित नहीं है.
अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषा को सीखने पढ़ने में कोई बुराई नहीं है.
महत्त्वपूर्ण यह है कि आपने अपने देश के आम लोगों तक क्या यह ज्ञान पहुँचाया ? अपनी मातृभाषा में उस सीखे हुए ज्ञान को पहुँचाने के लिए आपने क्या किया ? नीचे दिए गए लिंक पर जाएँ :

CTET : CERTIFICATE :

                                                                      CTET 

CBSE  द्वारा आयोजित CTET  परीक्षा के अंक पत्र पर परीक्षार्थी की जाति का उल्लेख नहीं होना चाहिए.इससे समाज में जातिवाद को बढ़ावा मिलेगा. जाति का दंभ करने वाले लोग आरक्षित वर्ग के उम्मीदवारों को हीन या दयादृष्टि से देखने लगेंगे. वह व्यक्ति चाहे जितना ही प्रतिभावान क्यों न हो ,जैसे ही लोगों को उसकी जाति का पता चलता है लोग फ़ौरन उसकी प्रतिभा पर प्रश्नचिह्न लगा देते हैं. कि "अच्छा ! कोटे से हो ? तभी यहाँ तक पहुँच गए".इस तरह के जुमले सुनकर आरक्षित वर्ग का व्यक्ति अपमानित होकर रह जाता है. जहाँ तक मेरी जानकारी है .किसी अन्य योग्यता परीक्षा या अन्य किसी परीक्षा के प्रमाणपत्रों पर व्यक्ति की जाति  का उल्लेख नहीं होता है. CBSE को  भी इस तरह की व्यवस्था करनी चाहिए. नियुक्ति करने वाले संस्थान पर जाति का सत्यापन छोड़ देना चाहिए.  जिससे कि  जातिवाद का अनुसरण  करने वाले लोगों को किसी की  प्रतिभा पर प्रश्न चिह्न लगाने और उसे घडी-घडी  अपमानित करने का अवसर प्राप्त न हो सके.

शनिवार, 22 जून 2013

                       CTET  की ज़रूरत ?


CTET या  TET  जैसी शिक्षक योग्यता परीक्षाओं के अच्छे परिणाम नहीं आ रहे हैं। CTET परीक्षा में उम्मीदवारों का न्यूनतम सफलता स्तर उम्मीदवारों  की
अयोग्यता को नहीं बलकी B. Ed. या शिक्षा में प्रशिक्षण देने वाली संस्थाओं को मान्यता देने वाली संस्था पर ही सवालिया निशान लगाता है। जब इन संस्थाओं के छात्रों ने जिस पाठ्यक्रम को पढ़ा है उसी से सम्बंधित प्रश्नपत्र 
को कर पाने में सक्षम नहीं हैं तो इनको डिग्री या डिप्लोमा  किस प्रकार की परीक्षा को पास करके मिल गया।जबकि CTET या TET के लिए जो पाठ्यक्रम निर्धारित है वह लगभग सभी शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों के समकक्ष ही है। फिर किस प्रकार पाठ्यक्रम को पढ़ा होने के बावजूद भी उम्मीदवार काफी 
बड़ी संख्या में असफल हो रहे हैं। यहाँ एक बात गौर करने की है कि शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों को मान्यता देने वाली और CTET और TET की निर्देशिका 
और पाठ्यक्रम निर्धारित करने वाली संस्था एक ही है।
फिर इतना भारी  अंतर कैसे  आ रहा है ? ये चिंता का विषय है।
CTET या TET लागू होने बाद शिक्षकों की नियुक्ति प्रक्रिया पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। KVS ,NVS में कई वर्षों से शिक्षकों की रिक्तियां विज्ञापित नहीं हुई हैं। KVS  ने तो 2 0 1 0 के बाद शिक्षकों की रिक्तियों का 
विज्ञापन ही नहीं दिया जो कि पहले प्रत्येक वर्ष आता ही था।
आप सोच रहे होंगे फिर उनका काम कैसे चल रहा है ?
ये कोई मुश्किल बात नहीं है। तदर्थ शिक्षकों की नियुक्ति करके ये कार्य वर्षों से चल रहा है।जिसमें नियमित शिक्षकों की अपेक्षा कम वेतन देना पड़ता है।जिससे सरकारी खजाने पर शिक्षार्थ कम बोझ पड़ता है।
इसे कहते हैं मितव्ययिता का सिद्धांत। जिसे क्रियान्वित करने में CTET की महती भूमिका की जितनी प्रशंसा की जाये वो कम है। 
होना यह चाहिए था कि  CTET की बजाय शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों की समीक्षा की जाती साथ ही  जिन 
संस्थानों को इन  पाठ्यक्रमों को  संचालित करने की मान्यता मिली हुई है , उनका आधारभूत ढांचा इन पाठ्यक्रमों के लायक है भी या नहीं ? या ये संस्थान  मात्र डिग्रियाँ बाँटने का काम कर रहे हैं ? जिनमें प्रवेश परीक्षाओं के नाम पर महज खानापूर्ति हो रही हो।
इस सन्दर्भ  में इन संस्थाओं की कार्य शैली का सतत मूल्यांकन करते रहने की ज़रूरत है। हो सकता है इन शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं  में लक्ष्मी से सरस्वती का विनिमय हो रहा हो।
ऐसे में  सरस्वती पात्र के स्थान पर अपात्र के चंगुल में फँस  सकती है। उचित यही है कि धन के आधार  पर
अपात्र को पात्र  बनाने में दक्ष शिक्षण प्रशिक्षण  संस्थाओं पर नकेल कसने की ज़रूरत है। साथ ही शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों में उन्हीं उम्मीदवारों के प्रवेश की व्यवस्था की जानी चाहिए जो कि वास्तव में इस पेशे को अपनाना चाहते हों। मात्र सरकारी नौकरी प्राप्त कर आराम की ज़िदगी बसर कर सकने का सुनहरा स्वप्न देखने वाले लोगों से शिक्षण व्यवसाय को बचाने की ज़रूरत है।शिक्षण को CTET या TET  की आवश्यकता नहीं है अपितु शिक्षण के लिए उपयुक्त वातारण ,पर्याप्त एवं आधुनिकतम शिक्षण सहायक सामग्री के साथ इनका बेहतर एवं रचनात्मक उपयोग कर सकने में सक्षम समर्पित व्यक्तित्व की ज़रूरत है।
जिसका चयन 2 -3 घंटों की बहुवैकल्पिक एवं  बिना नकारात्मक अंक के प्रावधान वाली परीक्षा  से नहीं हो सकता।2 -3 घंटों में सामान्यता तुक्का लगाकर क्या 
देश के भविष्य निर्माताओं की योग्यता का निर्धारण किया जा सकता है ? जी नहीं। इसके लिए  शिक्षक प्रशिक्षण 
पाठ्यक्रम को  भविष्य की ज़रूरतों को ध्यान में रखकर  बनाये जाने की आज आवश्यकता  है। मात्र रेसिपी की जानकारी होने से ही भोजन नहीं बनाया जा सकता बल्कि उसके लिए ज़रूरी खाद्य सामग्री भी उपलब्ध होनी चाहिए। यही हाल सरकारी स्कूलों की शिक्षा का है।
CTET या TET के माध्यम से शिक्षण  की समझ रखने 
वाले उम्मीदवारों का मान लो चयन हो भी गया तो क्या 
वे 8 0 से 1 0 0 बच्चों की कक्षा में बिना ज़रूरी सुविधाओं 
के अपनी शिक्षण  क्षमता का लाभ  बच्चों तक पहुंचा पाएंगे ? बिलकुल नहीं। तीन सेक्शन के बच्चे जब एक 
ही सेक्शन में ढूस दिए गए हो तो शिक्षण प्रक्रिया का क्या हाल होगा ,इसका अंदाज़ा सामान्य से सामान्य बुद्धि धारक भी सहज ही लगा सकता  है।

अत : CTET  से भी ज़रूरी है  सरकारी विद्यालयों के मद में अधिक धन का प्रावधान ताकि विद्यालयों में शिक्षण हेतु आधारभूत सुविधाएँ उपलब्ध हो सकें और शिक्षक अपनी  क्षमता का बेहतर इस्तेमाल करने का अवसर प्राप्त कर छात्रों के भविष्य को सही दिशा दे सके । शिक्षक योग्यता परीक्षा से भी ज़रूरी है  शिक्षा में डिग्री -डिप्लोमा देने वाली संस्थाओं की परीक्षा।यदि इन संस्थाओं की ठीक प्रकार से परीक्षा हो गई  तो फिर 
CTET या TET जैसी परीक्षाओं की आवश्यकता ही नहीं 
पड़ेगी। 

शुक्रवार, 21 जून 2013

    
'आपदा  का फायदा उठाने वाले मनुष्यरूपी  जानवर' 


इंडिया टी वी पर प्रसारित खबर से पता  चला कि  उत्तराखंड की भीषण आपदा और मौत के मुंह के अरीब होने के बावजूद कुछ लोग अपने स्वार्थ और लालच से बाज़ नहीं आये।उन बेशर्म और इंसान के नाम पर कलंक 
लोगों ने केदारनाथ मंदिर का खज़ाना, वहाँ रखे दानपात्रों 
और तिजोरियों को तोड़कर लूट लिया यहाँ तक कि पास 
ही के 'स्टेट बैंक ऑफ इंडिया 'से  लगभग तीन करोड़ रुपए भी लूट लिए।(इंडिया टी वी के अनुसार ) ऐसे बेशर्म लोग तीर्थ यात्रा करने का ढोंग करते हैं। जबकि सच तो यह है कि  मौका मिलते ही ये लोग अपना स्वार्थ सिद्ध करने दूसरों के माल पर अपना हाथ साफ़ करने से बाज़ नहीं आते। ये वही लोग होते हैं जिनके लिए ये आपदाएं या दंगे अपने स्वार्थ को सिद्ध करने का माध्यम मात्र होते हैं।ये लोग शवों के शरीर से गहने उतारने,उनका कीमती सामान हथियाने में भी ज़रा भी शर्म महसूस नहीं करते।ये लोग गलती से मनुष्य योनि में पैदा हो गए हैं।इनमें मनुष्यों वाली विशेषताएँ नदारद हैं।ऐसे जानवरों को पकड़कर सख्त से सख्त सजा देने की ज़रूरत है। इन्हें मनुष्यों के समाज में इन्सान का मुखौटा लगाकर घूमने की इज़ाज़त नहीं देनी चाहिए। 




मंगलवार, 18 जून 2013

      धूम्रपान : एक व्यापक सामाजिक समस्या  


प्रशासन कहता है कि सार्वजनिक स्थानों पर सिगरेट -बीडी पीना अपराध है।पर लोग धड़ल्ले से पीते हैं।मना  करने पर मरने -मारने पर उतारू हो जाते हैं। उनको रोकने के लिए सरकार ने कहीं पर भी कोई व्यवस्था नहीं कर रखी है। इसका खामियाजा उन लोगों को भुगतना पड़ रहा है जो धूम्रपान नहीं करते।लेकिन दूसरों के द्वारा किये जा रहे धूम्रपान का शिकार होने को मजबूर हैं। सिनेमा हॉल ,बस ,रेल,बस स्टैंड ,या भीड़ -भाड़ वाले अन्य स्थानो के अलावा अपार्टमेंट्स और फ्लैट्स भी इससे अछूते नहीं हैं। नीचे के फ्लोर से ऊपर की तरफ जाने वाला बीडी सिगरेट का धुआं ऊपर के फ्लैट्स में रहने वाले लोगों के लिए।बहुत ज्यादा नुकसानदायक है क्योंकि फ्लैट्स में तो  धुआं रोज़ ही आता है। आदमी घर छोड़ कर तो भाग नहीं जाएगा।अगर  जाकर धूम्रपान करने वाले व्यक्ति को मना  करे तो वह कहेगा भाई मैं अपने घर में कुछ करूँ तुझे क्या तकलीफ हो रही है? एकबार यह धुआं घर में घुस जाए 

तो सहज ही अनुमान लगाया जा सकता घर में रहने वाले बच्चे ता अन्य सदस्य अनजाने ही में फेफड़ों की बीमारी से ग्रस्त हो जाएँगे और उन्हें पता भी नहीं चल पाएगा कि  उनको यह बीमारी कैसे हो गई।धूम्रपान करनेवाला अपने साथ -साथ दूसरों की भी ज़िन्दगी  को भी मौत की तरफ बढाता है।
 इस सन्दर्भ में मुझे लगता है कि व्यापक जनहित और जनस्वास्थ्य को ध्यान में  रखते हुए माननीय उच्चतम 
न्यायालय को इसके उत्पादन और बिक्री पर रोक लगा देनी चाहिए। क्योंकि यहाँ पर एक व्यक्ति की स्वतंत्रता 
अन्य व्यक्तियों के स्वस्थ  जीवन के अधिकार  में बाधक बन रही है। 

रेलवे और आम जनता

       रेलवे और आम जनता 
इंडियन रेलवे के स्टेशनों पर पीने के पानी का घोर आकाल है। गरीब से गरीब व्यक्ति भी 2 0 रु की  पानी की बोतल खरीदने पर मजबूर है।ताज्जुब की बात तो यह है कि लोगों को शुद्ध जल उपलब्ध करवाने की बजाए 
खुद रेल  विभाग ' रेल नीर ' पिला कर पानी से सोना बना रहा है और बहती गंगा में हाथ धो रहा है।आप भारत के 
किसी भी रेलवे स्टेशन पर चले जाइये आपको पानी के नल से ज्यादा पानी की बोतलों के  ब्रांड देखने को मिल जाएँगे। रेल विभाग की इस मेहरबानी के कारण आम जनता की मेहनत की  कमाई पानी की भेंट चढ़ जाती  है। 2 6  और 3 2  रूपए से ज्यादा कमाने वाले को तो सरकार ने अमीर मान ही लिया है। फिर तो 2 0 रु की 
पानी की बोतल खरीदने की हिम्मत करने वाली भारत की  आम जनता तो अत्यधिक अमीर की कटैगरी में आ 
जाएगी। इस हिसाब से तो हमारा भारत वास्तव में महान और रिच है। रेल विभाग को प्रत्येक रेलवे स्टेशन पर पीने के शुद्ध पानी की  व्यवस्था करनी चाहिए। फ़िल्टर वाटर      २-३  रु लीटर की  कीमत पर उपलब्ध करवाया जाना चाहिए। प्रत्येक यात्री  को शुद्ध  और पर्याप्त मात्र में  जल उपलब्ध करवाना रेलवे की जिम्मेदारी है। इस हेतु किराये में ४-५ रु अधिभार के रूप में लिए जा सकते हैं जिससे कि वाटर को फ़िल्टर करने का खर्च निकल आये। एक स्टेशन पर तो हद ही हो गई। गाड़ी रुकने पर जब मैं पानी भरने के लिए उतरा तो पाया कि  किसी भी नल  पर पानी नहीं आ रहा। मजबूरी में मुझे बीस रूपये की बोतल खरीदनी पड़ी जो कि  आसानी से उपलब्ध थी। मेरे हिसाब से रेलवे के लिए आम जनता यात्री नहीं मात्र उपभोक्ता है। मिसाल के तौर पर शुद्ध पानी चाहिए तो पैसे खर्च करो , शीतल पेय चाहिए तो छपी कीमत से अधिक भुगतान करो, खाने-पीने का कोई भी सामान आपको लेना हो आपको वास्तविक मूल्य  से अधिक कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी। यह आपकी मजबूरी है।आप कर भी क्या सकते हैं ? एक और बात मैं यहाँ शेयर कर रहा हूँ। 5 जून को दिल्ली से केरल जाने वाली केरला एक्सप्रेस में अपने परिवार  के साथ  स्लीपर क्लास में यात्रा कर रहा था। गर्मी बहुत अधिक थी लेकिन पानी की बोतल देने वाला कोई नहीं था। लोगों को पानी की बोतल खरीदने के लिए पेंट्री तक जाना पड़ रहा था। पेंट्री में पानी की बोतल खरीदने वालों की लाईन लगी हुई थी।
मौके का पूरा-पूरा फायदा उठाया जा रहा था।लोग अपने-अपने कोच से पानी खरीदने लिए पेंट्री में जा रहे थे। और 
पेंट्री के  लोग आराम फरमा रहे थे। शायद सोच रहे होंगे 
कि जिसको जरुरत होगी खुद आकर ले जायेगा हमें चक्कर लगाने की क्या ज़रूरत है ? दिलचस्प बात तो यह है कि बर्फ न होने का बहाना बनाकर गर्म पानी ही बेचा जा रहा था। गर्मी से बेहाल छोटे -छोटे बच्चों और बुजुर्गों की खातिर लोग गर्म पानी भी लेने को मजबूर थे।
मैंने I R C T C  पर शिकायत की लेकिन कोई फायदा 
नहीं हुआ। इसके अलावा जो खाना स्लीपर क्लास में सप्लाई किया जाता है। उसकी क्वालिटी अच्छी  नहीं होती।मात्रा  भी बहुत ही कम होती है। एक आदमी का पेट शायद ही भर पाता हो। साथ में जो पानी होना चाहिए वह भी दिया नहीं जाता बार -बार मांगना पड़ता 
है। पानी तब आता है जब खाना खाकर बोतल खरीदी जा 
चुकी होती है। 1 6 जून को पोरबंदर से दिल्ली सराय रोहिल्ला के लिए चलने वाली पोरबंदर एक्सप्रेस में मैं 
S -3 (5 -6 ) में यात्रा कर रहा था। मैंने जो खाना लिया वेज की थाली 8 5  रुपये की थी जिसमें पतले -पतले दो 
पराठे ,मटर-पनीर की सब्जी,दाल के साथ मुश्किल से   1 0 0 ग्राम पके हुए चावल छोटी -सी प्लेट में थे। दूसरे 
शब्दों में 1 0 -1 2  चम्मच मात्र चावल थे। 8 5 रु खर्च करके भी मैं भूखा ही रह गया। मुझे बाद में पचास रु का 
चावल और खरीदना पड़ा। इस तरह मेरा खाना 1 3 5  रु 
का पड़ गया। अब इतने सारे सबूत होने के बाद क्या यह 
कहना सही नहीं है कि रेलवे विभाग के लिए आम जनता 
यात्री नहीं बल्कि एक उपभोक्ता मात्र है, जिनसे पानी  की बोतलों के नाम पर ,छपी कीमत से अधिक का सामान बेचकर, घटिया और महँगा खाना बेचकर उनकी 
जेब खाली की जा रही है।एक यात्री टिकट तो लेता है। मान  लो स्लीपर में  6 0 0  रु का लेकिन इस दौरान रेलवे द्वारा उपलब्ध करवाई जा रही खाने-पीने की चीज़ों पर ही उसके 1 5 0 0 -2 0 0 0  तक खर्च हो जाते हैं। जिनमें से गर्मी के दिनों में आधे से अधिक पैसे तो पानी की बोतलें खरीदने में ही खर्च हो जाते हैं।शेष खाने में खर्च हो जाता है। लेकिन जनता को अपने पैसों के हिसाब से वस्तुएं-सेवाएँ प्राप्त नहीं होती। रेल विभाग 
को इस सन्दर्भ में भारत की गरीब जनता के हितों को ध्यान में रखते हुए ट्रेन की पेंट्री में सस्ता और अच्छा 
खाना उपलब्ध करवाने की व्यवस्था करनी चाहिए।
साथ ही प्रत्येक स्टेशन पर शुद्ध पेय जल की भी पर्याप्त व्यवस्था करनी चाहिए। पानी के नल पर्याप्त मात्रा  में  लगाये जाने चाहिए जिससे  कि प्रत्येक कोच के यात्रियों को ज्यादा ढूंढना न पड़े। क्योंकि गाडी बहुत थोड़े समय के लिए ही रूकती है।पानी की बंद बोतलों की बिक्री को 
ज्यादा प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए।क्योंकि इन बंद बोतल कंपनियों के कारण पानी की बोतलों का ढेर का ढेर रोज़ निकलता है जो पर्यावरण के लिए काफी नुकसानदायक है।जगह -जगह बोतलें ही बोतलें नज़र आती हैं। जब यह बोतलें नदी नालों में जाती है तो नदी -नाले जाम हो जाते हैं।जिससे पानी सड़ने लगता है ,जिस कारण बीमारी फैलने का खतरा बराबर बना रहता है।
आप ट्रेन की यात्रा के दौरान रेलवे ट्रैक पर बोतलों के ढेर 
आसानी से देख सकते हैं। जिसे हम मात्र पानी समझकर 
2 0 रु में खरीद लेते हैं। यह  कंपनियाँ पानी से ही करोड़ों 
कमा रही हैं। अब आप सोच ही सकते हैं कि यदि रेल विभाग पीने के शुद्ध पानी की व्यवस्था ईमान दारी और सेवाभाव से स्टेशनों पर कर दे तो देश की आम जनता की मेहनत की करोड़ों की कमाई आसानी से बच सकती 
है। जिसे जनता दूसरे ज़रूरी कामों में खर्च कर महंगाई के समय  में थोड़ी राहत  ज़रूर पा  सकती है। 



   

   
        


शुक्रवार, 17 मई 2013

UNIVERSITY MEIN LECTURERSHIP

                                                       भावी शिक्षक और उच्च शिक्षा           

  विश्वविद्यालय में  एक अदद प्रवक्ता बनने  की चाह में न जाने कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं .एक सामान्य 

प्रतिभा का पुलिंदा धारी  प्राणी यह गलत फहमी पाल लेता है कि  उसकी दिन रात की मेहनत  रंग लाएगी और वह जरुर भारत के भविष्य निर्माण में हाथ बंटा पाएगा . लेकिन  जब उसका सामना  वास्तविकता से  होता है, तो उसकी  अक्ल पर पड़ा अक्लमंदी का दम्भी पर्दा स्वत: ही  हट जाता है और उसे अपने ज्ञानी होने की अज्ञानता का बोध हो जाता है . उसे परमहिमाप्रसारण के सन्दर्भ में अपनी योग्यता का अहसास जल्द ही हो जाता है। बेचारा लग जाता है दिन रात एक कर सर्वोच्चमहिमाधारी खेवनहार  की तलाश में .वो बेचारा एक ढूँढ़ता है ,उसे ऐसे महिमाधारी  हजारों की संख्या में मिल जाते हैं .जो लगातार ऐसे लोगों की तलाश में लगे  हैं जो   उनकी महिमा का बोझ वहन  कर  महिमा का अविरल प्रसार कर सके .इस परंपरा के प्रसार से उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रतिभाशाली सृजनात्मक शिक्षकों का पहुँच पाना एक सपना ही रह जाता है।शिक्षा राजनीतिक गुटबाजी का शिकार सी हो जाती है। शिक्षकों की नियुक्ति प्रक्रिया में वस्तुनिष्ठता के स्थान पर जब व्यक्तिनिष्ठता हावी होने लग जाती है  उसी क्षण शिक्षा का पतन होना शुरू हो जाता है। एक सही शिक्षक के चयन में वस्तुनिष्ठता का होना शिक्षण की प्रभावशीलता की दृष्टि से बेहद जरुरी है। जब चयन समिति के नज़रिए में व्यक्तिनिष्ठता अपने चरम पर पहुँच जाती है तब प्रतिभा का नहीं व्यक्ति का चयन हो जाता है। 
यहाँ पर चयन- दृष्टि प्रतिभा केन्द्रित नहीं बल्कि व्यक्ति केन्द्रित हो जाती है। 

 अब बात करते हैं समाधान की।   अगर यह समस्या है तो फिर इसका समाधान क्या है ?  बेहद आसान समाधान  है इस समस्या का : राज्यों में राज्यस्तरीय संस्था SLET  के अलावा  एवं  राष्ट्रीय स्तर पर   UGC,  NET  के अलावा एक अतिरिक्त प्रतियोगिता परीक्षा  का आयोजन कर सकती हैं जिसमें संभावित तदर्थ /स्थायी रिक्तियों हेतु उम्मीदवारों को  सर्वोच्च प्राप्तांकों  की मेरिट के आधार पर  मात्र  एक शैक्षणिक वर्ष के लिए सूचीबद्ध किया  जा सकता है। रिक्तियां होने पर सूचीबद्ध  उम्मीदवारों में से ही मेरिट के आधार पर नियुक्ति दी  जा सकती है ।  यह सूची प्रत्येक विश्वविद्यालय के तदर्थ पैनल के स्थान पर लायी जा सकती है। मेरिट सूची को मात्र एक  शैक्षणिक वर्ष के लिए ही मान्य बनाया जा सकता है। यह परीक्षा  प्रत्येक वर्ष आयोजित की जा सकती है. इससे फायदा यह होगा कि चयन प्रक्रिया से व्यक्तिनिष्ठता समाप्त हो जाएगी।प्रतिभाशाली उम्मीदवार ही शिक्षक बन सकेगा। चाटुकारिता की परंपरा पर विराम लग सकेगा। चयन समिति का नियुक्ति प्रक्रिया से अधिकार समाप्त होने से पद के उपयुक्त व्यक्ति ही चुना जा सकेगा। जिसकी विषय पर अच्छी पकड़ है। यहाँ एक बात सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है , जो परीक्षा आयोजित की जाए, वह वस्तुनिष्ठ अर्थात  बहुवैकल्पिक हो। उसके प्रश्नों में गहराई हो , शिक्षा मनोविज्ञान , शिक्षण विधियों ,शिक्षा दर्शन, शिक्षा का इतिहास से सम्बंधित  प्रश्न भी मुख्य विषय के साथ होने चाहिए ताकि भावी शिक्षकों की विषय विशेषज्ञता के साथ -साथ उनकी की शिक्षण अभिक्षमता  की भी परख की जा सके। आज के समय में  प्रत्येक शिक्षक के लिए मात्र विषय का ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं है। ज्ञान तो  इन्टरनेट पर भरा पड़ा है, बल्कि एक शिक्षक के लिए शिक्षण की विविध प्रविधियों की भी जानकारी होना बेहद ज़रूरी है। क्योंकि विद्वान होना अलग बात है , और शिक्षक  होना  अलग बात। ज्ञानी हम बेहद हो सकते हैं। यदि सामान्य छात्र तक हम सहज बोधगम्य तरीके से अपनी बात  नहीं पहुँचा सकते तो हमारे ज्ञानी हों  का क्या अर्थ है  ? आज बाज़ार तरह -तरह की गाइड्स से भरे पड़े हैं। इसी से हमारी शिक्षण योग्यता पर सवालिया निशान लग जाता है। बच्चों को हम विषय समझा  नहीं पा रहे और छात्र गाइड्स में अपना सुनहरा भविष्य तलाश रहें हैं। यह सब नियुक्ति प्रक्रिया में व्यक्तिनिष्ठता का ही परिणाम है।  अंत में यही कहा जा सकता है कि मेरिट सूची निर्माण के लिए होने वाली परीक्षा में नकारात्मक अंकों का 
प्रावधान जरुर होना चाहिए जिससे कि तुक्का लगाने वाले के स्थान पर विषय की गहरी समझ रखने वाला उम्मीदवार  ही मेरिट सूची में आ सके। जब तक ऐसा नहीं होगा उच्च शिक्षा में प्रतिभाओं का पदार्पण सदैव अवरुद्ध रहेगा।