सहायक आचार्य बनने का सपना
विश्वविद्यालयों द्वारा सहायक आचार्यों की नियुक्ति हेतु जो स्क्रीनिंग का तरीका अपनाया जा रहा है। उसे कतई उचित नहीं ठहराया जा सकता। इसके मुताबिक न्यूनतम योग्यता रखने वाला योग्य उम्मीदवार भी अयोग्य हो जाता है,अगर उसने पीएचडी /एम. फिल/अनुसन्धान कार्य/प्रकाशन कार्य न किया हो। एसोसिएट प्रोफ़ेसर /प्रोफ़ेसर की नियुक्ति के लिए तो यह स्क्रीनिंग उचित एवं अनिवार्य ठहराई जा सकती है। परन्तु शिक्षण में किसी योग्य उम्मीदवार के प्रवेश करने के स्तर पर यह स्क्रीनिंग एक बाधा से अधिक कुछ नहीं है। यदि इसे उचित मान भी लिया जाये तो इससे 'यू जी सी नेट' जैसी योग्यता परीक्षा की अनिवार्यता
और महत्त्व पर ही सवालिया निशान लग जायेगा। क्योंकि इस स्क्रीनिंग में इस परीक्षा को न्यूनतम महत्त्व दिया गया है। उदाहरण के लिए- नेट जे आर एफ के लिए ३/५ अंक स्क्रीनिंग में दिए गए हैं ,वहीँ एम् फिल/पीएचडी धारकों को अधिकतम १७ अंक दिए जा रहे हैं। इसका सीधा सा अर्थ है कि यदि आपके पास एम् फिल ,पीएचडी की उपाधि है , आपने अनुसन्धान कार्य किया है , आपकी पुस्तके प्रकाशित हुई हैं तो आपके चयन के अवसर ज्यादा हैं। मात्र स्नाकोत्तर उपाधि और नेट के आधार पर आपका सहायक आचार्य बनने का सपना मात्र दिवास्वप्न ही है। लगता है कि ऐसा मान लिया गया है कि अनुसन्धान कार्य का अनुभव रखनेवाला, पुस्तकों का लेखक ही विश्वविद्यालय स्तर पर शिक्षक बनने का असल हकदार है अन्यथा इस तरह की स्क्रीनिंग की बजाय एक लिखित एवं नकारात्मक अंकन के प्रावधान वाली परीक्षा के आधार पर योग्य उम्मीदवारों को साक्षात्कार हेतु चुना जा सकता था। हम सभी जानते हैं कि बारहवीं तक पढ़ाने के लिए बी एड अनिवार्य योग्यता है। मात्र एक कक्षा ऊपर आते ही अनुसन्धायकों का महत्त्व अचानक बढ़ जाता है और शिक्षण -प्रशिक्षण योग्यता का घट जाता है। अनुसंधायक अच्छे शिक्षक हो सकते है। पर इसका यह तात्पर्य नहीं कि स्नातकोत्तर उपाधि रखने वाला अच्छा शिक्षक नहीं हो सकता जो उसे सबसे निचले पायदान पर डाल दिया गया है। यह वास्तव में अवसर दिए बिना किसी को अयोग्य मान लेने जैसा है। अगर हम दिल्ली विश्वविद्यालय के सन्दर्भ में देखें तो हम पाते हैं कि यहाँ पर प्रवेश ही अधिकतम प्राप्तांक के आधार पर होते हैं। प्रत्येक शिक्षा बोर्ड /विश्वविद्यालय के उच्चतम प्राप्तांक धारकों को ही प्रवेश मिल पाता है। मतलब भारत भर के बोर्ड/विश्वविद्यालयों के चुनिंदा विद्यार्थी ही प्रवेश पाने में सक्षम हो पाते है। ऐसे में कई मायनों में वे सब पहले से ही मेहनती , बुद्धिमान होते हैं। उनमें आप कितना सुधार लायेंगे और क्या पढ़ाएंगे ? पब्लिक स्कूल से निकले ये विद्यार्थी पहले से ही साधन संपन्न होते हैं। जिनको कि हम इंग्लिश माध्यम से पढ़ाते हैं। जिनमें वास्तव में सुधार की जरुरत है वे है हिंदी माध्यम के छात्र। जिनको पढ़ाने में ही अनुसंधायकों की वास्तविक योग्यता का परीक्षण हो सकता है ,उनके लिए तो पुस्तकें तक उपलब्ध नहीं करवाई जाती। इन अभावग्रस्त लोगों को ही ज्ञान के भण्डार की असल ज़रूरत है क्योंकि 'अभाव में ही भाव पैदा होता है।' इस कसौटी पर ही अनुसंधायकों के ज्ञान का परीक्षण हो सकता है। बाकायदा इस पर अनुसन्धान कार्य भी होना चाहिए कि "एक अनुसंधकर्ता ही प्रभावशाली सहायक आचार्य हो सकता है।"
आज वास्तव में इस परिकल्पना के परीक्षण एवं शोध द्वारा इसकी सार्थकता सिद्ध करने की ज़रूरत है। अधिक जानकारी के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें : http://duugrg.du.ac.in/du/index.php?page=rules
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