'ज्ञान और शिक्षा ' सुनने में ये दोनों शब्द एक जैसे लगते हैं .लेकिन दोनों में बहुत फर्क है .जो ज्ञान है जरुरी नहीं कि वो शिक्षा भी हो .ज्ञान कोई भी व्यक्ति कहीं से भी प्राप्त कर सकता है . मिसाल के तौर पर - पुस्तकों से , सुनकर , इन्टरनेट के माध्यम से. मगर ये महज ज्ञान ही है शिक्षा नहीं . ज्ञान जब वैद्य हो जाता है तब ये शिक्षा का रूप ग्रहण कर लेता है . और इस ज्ञान को वैद्यता प्रदान करता है उस विषय का विशेषज्ञ .यानि कि गुरु . इसीलिए कहा जाता है कि बिना गुरू के ज्ञान अधूरा होता है .इसका कारण है कि पुस्तकों में या ज्ञान प्राप्ति के अन्य माध्यमों से प्राप्त ज्ञान वास्तविक है या निराधार ? इसका निर्धारण आप नहीं कर सकते .
ज्ञान सही है या गलत है ,प्राप्त सूचना सत्य है या असत्य ? इसका फैसला शिक्षार्थी के लिए करना आसान नहीं होता . अधूरे ज्ञान के सहारे आप तरक्की के रास्ते नहीं तय कर सकते . अगर चल भी दिए तो रास्ते में लगने वाले थपेड़ों से आप मुकाबला नहीं कर पाएंगे .क्योंकि इस ज्ञान में मुश्किलों का सामना कर पाने की सामर्थ्य नहीं होती . कारण साफ़ है .ये ज्ञान आपकी ग्रहण क्षमता एवं रूचि का ही विस्तार है . इस ज्ञान की सीमाएं और संभावनाएं आपकी सीमाएं और संभावनाएं हैं . कहने का तात्पर्य ये है कि ये ज्ञान एकतरफा है . इसकी वैद्यता संदिग्ध है . इस संदिग्ध ज्ञान के सहारे विद्वता का दंभ भरना निरी मूर्खता है .कितने ही लोग हमें मिल जायेंगे जिनके पास मात्र ज्ञान ही होता है . लेकिन वह यह नहीं बता सकते कि उनका ज्ञान कितना सही है और कितना गलत . यही उनके ज्ञान की सीमा है . सामान्य लोगों के बीच ऐसा व्यक्ति भले ही खुद को ज्ञानी साबित करने में थोडा -बहुत कामियाब हो जाये . लेकिन जैसे ही उसका सामना विषय - विशेषज्ञ यानि कि गुरु से होता है . उसे अपनी अज्ञानता का अनुभव होता है . कहने का तात्पर्य है कि बिना गुरु के हम पढ़ तो सकते हैं परन्तु पढ़े हुए के अर्थ की सत्यता और गहनता को अनुभव नहीं कर सकते. क्योंकि शिक्षा वास्तव में गुरु द्वारा छात्रों का भविष्य- निर्माण , विविध परिस्थितियों में उन्हें व्यवहारकुशल बनाना और उनका चारित्रिक विकास सुनिश्चित करना है .मात्र अच्छे अंक प्राप्त कर लेना ही शिक्षा नहीं है . अच्छे अंकों के साथ हमारे व्यवहार में विनम्रता ,वाणी में मधुरता ,बड़े बुजुर्गों और गुरुजनों के प्रति मन में सम्मान की भावना ,जरुरतमंदों के प्रति कर्त्तव्य और दया की भावना , अपने राष्ट्र के प्रति गर्व और राष्ट्रीयता की भावना यदि हमारे मन में है तभी हम वास्तव में स्वयं को 'शिक्षित' विशेषण से विभूषित कर सकते हैं. और इस अवस्था तक पहुँचाने में गुरु का योगदान अविस्मरणीय है .
महापुरुषों ने तो यहाँ तक कहा है कि बिना गुरु के ज्ञान कभी भी प्रमाणिक नहीं हो सकता .जिस प्रकार पुष्प की सुगंध से उसके स्वरुप का पता चलता है ,उसी प्रकार से मनुष्य के आचरण से उसके शिक्षित होने का पता चलता है . ज्ञान क्षणिक भी हो सकता है परन्तु शिक्षा सदैव शाश्वत होती है . ज्ञान संशय है तो शिक्षा निर्णय है . इसलिए शिक्षित बनिए मात्र ज्ञानी नहीं .
बड़े से बड़े ज्ञानी भी गुरु की महिमा का बखान करते नहीं थकते . चाहे वह कबीर हो , तानसेन हों , बैजू बावरा हो या अन्य कोई महापुरुष . कबीरदास ने कहा है कि गुरु एक कुम्हार की तरह होता है और शिष्य एक घड़े की तरह . जिस प्रकार कुम्हार घड़ा बनाते समय उसे सही आकार देने के लिए बाहर से भले ही कठोरता बरते , लेकिन अन्दर से उसे आलम्ब ही देता है कि कहीं घड़ा टूट न जाये .उसी प्रकार गुरु भी बेशक बाहर से थोडा कठोर हो परन्तु उसके ह्रदय में अपने शिष्यों के लिए अपार स्नेह का सागर हिलोरे मार रहा होता है . उस गुरु के लिए अपने ह्रदय में बैर भाव रखना मात्र कोरे ज्ञान का परिचायक है शिक्षा का नहीं . मात्र ज्ञानी होने से अहम् बढ़ता है . मैं की भावना ह्रदय में बलवती होती है .जबकि शिक्षा आपके ह्रदय का विस्तार करती है .लोभ , लालच , स्वार्थ आदि से दूर करती है . अनुज के प्रति प्रेम और अग्रजनों के लिए ह्रदय में आदर का संचरण करती है . यह शिक्षा का अप्रतिम लक्षण है . ज्ञान दिखाना पड़ता है जबकि शिक्षा अनायास ही आपके व्यवहार से प्रकट हो जाती है .
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