शनिवार, 22 जून 2013

                       CTET  की ज़रूरत ?


CTET या  TET  जैसी शिक्षक योग्यता परीक्षाओं के अच्छे परिणाम नहीं आ रहे हैं। CTET परीक्षा में उम्मीदवारों का न्यूनतम सफलता स्तर उम्मीदवारों  की
अयोग्यता को नहीं बलकी B. Ed. या शिक्षा में प्रशिक्षण देने वाली संस्थाओं को मान्यता देने वाली संस्था पर ही सवालिया निशान लगाता है। जब इन संस्थाओं के छात्रों ने जिस पाठ्यक्रम को पढ़ा है उसी से सम्बंधित प्रश्नपत्र 
को कर पाने में सक्षम नहीं हैं तो इनको डिग्री या डिप्लोमा  किस प्रकार की परीक्षा को पास करके मिल गया।जबकि CTET या TET के लिए जो पाठ्यक्रम निर्धारित है वह लगभग सभी शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों के समकक्ष ही है। फिर किस प्रकार पाठ्यक्रम को पढ़ा होने के बावजूद भी उम्मीदवार काफी 
बड़ी संख्या में असफल हो रहे हैं। यहाँ एक बात गौर करने की है कि शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों को मान्यता देने वाली और CTET और TET की निर्देशिका 
और पाठ्यक्रम निर्धारित करने वाली संस्था एक ही है।
फिर इतना भारी  अंतर कैसे  आ रहा है ? ये चिंता का विषय है।
CTET या TET लागू होने बाद शिक्षकों की नियुक्ति प्रक्रिया पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। KVS ,NVS में कई वर्षों से शिक्षकों की रिक्तियां विज्ञापित नहीं हुई हैं। KVS  ने तो 2 0 1 0 के बाद शिक्षकों की रिक्तियों का 
विज्ञापन ही नहीं दिया जो कि पहले प्रत्येक वर्ष आता ही था।
आप सोच रहे होंगे फिर उनका काम कैसे चल रहा है ?
ये कोई मुश्किल बात नहीं है। तदर्थ शिक्षकों की नियुक्ति करके ये कार्य वर्षों से चल रहा है।जिसमें नियमित शिक्षकों की अपेक्षा कम वेतन देना पड़ता है।जिससे सरकारी खजाने पर शिक्षार्थ कम बोझ पड़ता है।
इसे कहते हैं मितव्ययिता का सिद्धांत। जिसे क्रियान्वित करने में CTET की महती भूमिका की जितनी प्रशंसा की जाये वो कम है। 
होना यह चाहिए था कि  CTET की बजाय शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों की समीक्षा की जाती साथ ही  जिन 
संस्थानों को इन  पाठ्यक्रमों को  संचालित करने की मान्यता मिली हुई है , उनका आधारभूत ढांचा इन पाठ्यक्रमों के लायक है भी या नहीं ? या ये संस्थान  मात्र डिग्रियाँ बाँटने का काम कर रहे हैं ? जिनमें प्रवेश परीक्षाओं के नाम पर महज खानापूर्ति हो रही हो।
इस सन्दर्भ  में इन संस्थाओं की कार्य शैली का सतत मूल्यांकन करते रहने की ज़रूरत है। हो सकता है इन शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं  में लक्ष्मी से सरस्वती का विनिमय हो रहा हो।
ऐसे में  सरस्वती पात्र के स्थान पर अपात्र के चंगुल में फँस  सकती है। उचित यही है कि धन के आधार  पर
अपात्र को पात्र  बनाने में दक्ष शिक्षण प्रशिक्षण  संस्थाओं पर नकेल कसने की ज़रूरत है। साथ ही शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों में उन्हीं उम्मीदवारों के प्रवेश की व्यवस्था की जानी चाहिए जो कि वास्तव में इस पेशे को अपनाना चाहते हों। मात्र सरकारी नौकरी प्राप्त कर आराम की ज़िदगी बसर कर सकने का सुनहरा स्वप्न देखने वाले लोगों से शिक्षण व्यवसाय को बचाने की ज़रूरत है।शिक्षण को CTET या TET  की आवश्यकता नहीं है अपितु शिक्षण के लिए उपयुक्त वातारण ,पर्याप्त एवं आधुनिकतम शिक्षण सहायक सामग्री के साथ इनका बेहतर एवं रचनात्मक उपयोग कर सकने में सक्षम समर्पित व्यक्तित्व की ज़रूरत है।
जिसका चयन 2 -3 घंटों की बहुवैकल्पिक एवं  बिना नकारात्मक अंक के प्रावधान वाली परीक्षा  से नहीं हो सकता।2 -3 घंटों में सामान्यता तुक्का लगाकर क्या 
देश के भविष्य निर्माताओं की योग्यता का निर्धारण किया जा सकता है ? जी नहीं। इसके लिए  शिक्षक प्रशिक्षण 
पाठ्यक्रम को  भविष्य की ज़रूरतों को ध्यान में रखकर  बनाये जाने की आज आवश्यकता  है। मात्र रेसिपी की जानकारी होने से ही भोजन नहीं बनाया जा सकता बल्कि उसके लिए ज़रूरी खाद्य सामग्री भी उपलब्ध होनी चाहिए। यही हाल सरकारी स्कूलों की शिक्षा का है।
CTET या TET के माध्यम से शिक्षण  की समझ रखने 
वाले उम्मीदवारों का मान लो चयन हो भी गया तो क्या 
वे 8 0 से 1 0 0 बच्चों की कक्षा में बिना ज़रूरी सुविधाओं 
के अपनी शिक्षण  क्षमता का लाभ  बच्चों तक पहुंचा पाएंगे ? बिलकुल नहीं। तीन सेक्शन के बच्चे जब एक 
ही सेक्शन में ढूस दिए गए हो तो शिक्षण प्रक्रिया का क्या हाल होगा ,इसका अंदाज़ा सामान्य से सामान्य बुद्धि धारक भी सहज ही लगा सकता  है।

अत : CTET  से भी ज़रूरी है  सरकारी विद्यालयों के मद में अधिक धन का प्रावधान ताकि विद्यालयों में शिक्षण हेतु आधारभूत सुविधाएँ उपलब्ध हो सकें और शिक्षक अपनी  क्षमता का बेहतर इस्तेमाल करने का अवसर प्राप्त कर छात्रों के भविष्य को सही दिशा दे सके । शिक्षक योग्यता परीक्षा से भी ज़रूरी है  शिक्षा में डिग्री -डिप्लोमा देने वाली संस्थाओं की परीक्षा।यदि इन संस्थाओं की ठीक प्रकार से परीक्षा हो गई  तो फिर 
CTET या TET जैसी परीक्षाओं की आवश्यकता ही नहीं 
पड़ेगी। 

शुक्रवार, 21 जून 2013

    
'आपदा  का फायदा उठाने वाले मनुष्यरूपी  जानवर' 


इंडिया टी वी पर प्रसारित खबर से पता  चला कि  उत्तराखंड की भीषण आपदा और मौत के मुंह के अरीब होने के बावजूद कुछ लोग अपने स्वार्थ और लालच से बाज़ नहीं आये।उन बेशर्म और इंसान के नाम पर कलंक 
लोगों ने केदारनाथ मंदिर का खज़ाना, वहाँ रखे दानपात्रों 
और तिजोरियों को तोड़कर लूट लिया यहाँ तक कि पास 
ही के 'स्टेट बैंक ऑफ इंडिया 'से  लगभग तीन करोड़ रुपए भी लूट लिए।(इंडिया टी वी के अनुसार ) ऐसे बेशर्म लोग तीर्थ यात्रा करने का ढोंग करते हैं। जबकि सच तो यह है कि  मौका मिलते ही ये लोग अपना स्वार्थ सिद्ध करने दूसरों के माल पर अपना हाथ साफ़ करने से बाज़ नहीं आते। ये वही लोग होते हैं जिनके लिए ये आपदाएं या दंगे अपने स्वार्थ को सिद्ध करने का माध्यम मात्र होते हैं।ये लोग शवों के शरीर से गहने उतारने,उनका कीमती सामान हथियाने में भी ज़रा भी शर्म महसूस नहीं करते।ये लोग गलती से मनुष्य योनि में पैदा हो गए हैं।इनमें मनुष्यों वाली विशेषताएँ नदारद हैं।ऐसे जानवरों को पकड़कर सख्त से सख्त सजा देने की ज़रूरत है। इन्हें मनुष्यों के समाज में इन्सान का मुखौटा लगाकर घूमने की इज़ाज़त नहीं देनी चाहिए। 




मंगलवार, 18 जून 2013

      धूम्रपान : एक व्यापक सामाजिक समस्या  


प्रशासन कहता है कि सार्वजनिक स्थानों पर सिगरेट -बीडी पीना अपराध है।पर लोग धड़ल्ले से पीते हैं।मना  करने पर मरने -मारने पर उतारू हो जाते हैं। उनको रोकने के लिए सरकार ने कहीं पर भी कोई व्यवस्था नहीं कर रखी है। इसका खामियाजा उन लोगों को भुगतना पड़ रहा है जो धूम्रपान नहीं करते।लेकिन दूसरों के द्वारा किये जा रहे धूम्रपान का शिकार होने को मजबूर हैं। सिनेमा हॉल ,बस ,रेल,बस स्टैंड ,या भीड़ -भाड़ वाले अन्य स्थानो के अलावा अपार्टमेंट्स और फ्लैट्स भी इससे अछूते नहीं हैं। नीचे के फ्लोर से ऊपर की तरफ जाने वाला बीडी सिगरेट का धुआं ऊपर के फ्लैट्स में रहने वाले लोगों के लिए।बहुत ज्यादा नुकसानदायक है क्योंकि फ्लैट्स में तो  धुआं रोज़ ही आता है। आदमी घर छोड़ कर तो भाग नहीं जाएगा।अगर  जाकर धूम्रपान करने वाले व्यक्ति को मना  करे तो वह कहेगा भाई मैं अपने घर में कुछ करूँ तुझे क्या तकलीफ हो रही है? एकबार यह धुआं घर में घुस जाए 

तो सहज ही अनुमान लगाया जा सकता घर में रहने वाले बच्चे ता अन्य सदस्य अनजाने ही में फेफड़ों की बीमारी से ग्रस्त हो जाएँगे और उन्हें पता भी नहीं चल पाएगा कि  उनको यह बीमारी कैसे हो गई।धूम्रपान करनेवाला अपने साथ -साथ दूसरों की भी ज़िन्दगी  को भी मौत की तरफ बढाता है।
 इस सन्दर्भ में मुझे लगता है कि व्यापक जनहित और जनस्वास्थ्य को ध्यान में  रखते हुए माननीय उच्चतम 
न्यायालय को इसके उत्पादन और बिक्री पर रोक लगा देनी चाहिए। क्योंकि यहाँ पर एक व्यक्ति की स्वतंत्रता 
अन्य व्यक्तियों के स्वस्थ  जीवन के अधिकार  में बाधक बन रही है। 

रेलवे और आम जनता

       रेलवे और आम जनता 
इंडियन रेलवे के स्टेशनों पर पीने के पानी का घोर आकाल है। गरीब से गरीब व्यक्ति भी 2 0 रु की  पानी की बोतल खरीदने पर मजबूर है।ताज्जुब की बात तो यह है कि लोगों को शुद्ध जल उपलब्ध करवाने की बजाए 
खुद रेल  विभाग ' रेल नीर ' पिला कर पानी से सोना बना रहा है और बहती गंगा में हाथ धो रहा है।आप भारत के 
किसी भी रेलवे स्टेशन पर चले जाइये आपको पानी के नल से ज्यादा पानी की बोतलों के  ब्रांड देखने को मिल जाएँगे। रेल विभाग की इस मेहरबानी के कारण आम जनता की मेहनत की  कमाई पानी की भेंट चढ़ जाती  है। 2 6  और 3 2  रूपए से ज्यादा कमाने वाले को तो सरकार ने अमीर मान ही लिया है। फिर तो 2 0 रु की 
पानी की बोतल खरीदने की हिम्मत करने वाली भारत की  आम जनता तो अत्यधिक अमीर की कटैगरी में आ 
जाएगी। इस हिसाब से तो हमारा भारत वास्तव में महान और रिच है। रेल विभाग को प्रत्येक रेलवे स्टेशन पर पीने के शुद्ध पानी की  व्यवस्था करनी चाहिए। फ़िल्टर वाटर      २-३  रु लीटर की  कीमत पर उपलब्ध करवाया जाना चाहिए। प्रत्येक यात्री  को शुद्ध  और पर्याप्त मात्र में  जल उपलब्ध करवाना रेलवे की जिम्मेदारी है। इस हेतु किराये में ४-५ रु अधिभार के रूप में लिए जा सकते हैं जिससे कि वाटर को फ़िल्टर करने का खर्च निकल आये। एक स्टेशन पर तो हद ही हो गई। गाड़ी रुकने पर जब मैं पानी भरने के लिए उतरा तो पाया कि  किसी भी नल  पर पानी नहीं आ रहा। मजबूरी में मुझे बीस रूपये की बोतल खरीदनी पड़ी जो कि  आसानी से उपलब्ध थी। मेरे हिसाब से रेलवे के लिए आम जनता यात्री नहीं मात्र उपभोक्ता है। मिसाल के तौर पर शुद्ध पानी चाहिए तो पैसे खर्च करो , शीतल पेय चाहिए तो छपी कीमत से अधिक भुगतान करो, खाने-पीने का कोई भी सामान आपको लेना हो आपको वास्तविक मूल्य  से अधिक कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी। यह आपकी मजबूरी है।आप कर भी क्या सकते हैं ? एक और बात मैं यहाँ शेयर कर रहा हूँ। 5 जून को दिल्ली से केरल जाने वाली केरला एक्सप्रेस में अपने परिवार  के साथ  स्लीपर क्लास में यात्रा कर रहा था। गर्मी बहुत अधिक थी लेकिन पानी की बोतल देने वाला कोई नहीं था। लोगों को पानी की बोतल खरीदने के लिए पेंट्री तक जाना पड़ रहा था। पेंट्री में पानी की बोतल खरीदने वालों की लाईन लगी हुई थी।
मौके का पूरा-पूरा फायदा उठाया जा रहा था।लोग अपने-अपने कोच से पानी खरीदने लिए पेंट्री में जा रहे थे। और 
पेंट्री के  लोग आराम फरमा रहे थे। शायद सोच रहे होंगे 
कि जिसको जरुरत होगी खुद आकर ले जायेगा हमें चक्कर लगाने की क्या ज़रूरत है ? दिलचस्प बात तो यह है कि बर्फ न होने का बहाना बनाकर गर्म पानी ही बेचा जा रहा था। गर्मी से बेहाल छोटे -छोटे बच्चों और बुजुर्गों की खातिर लोग गर्म पानी भी लेने को मजबूर थे।
मैंने I R C T C  पर शिकायत की लेकिन कोई फायदा 
नहीं हुआ। इसके अलावा जो खाना स्लीपर क्लास में सप्लाई किया जाता है। उसकी क्वालिटी अच्छी  नहीं होती।मात्रा  भी बहुत ही कम होती है। एक आदमी का पेट शायद ही भर पाता हो। साथ में जो पानी होना चाहिए वह भी दिया नहीं जाता बार -बार मांगना पड़ता 
है। पानी तब आता है जब खाना खाकर बोतल खरीदी जा 
चुकी होती है। 1 6 जून को पोरबंदर से दिल्ली सराय रोहिल्ला के लिए चलने वाली पोरबंदर एक्सप्रेस में मैं 
S -3 (5 -6 ) में यात्रा कर रहा था। मैंने जो खाना लिया वेज की थाली 8 5  रुपये की थी जिसमें पतले -पतले दो 
पराठे ,मटर-पनीर की सब्जी,दाल के साथ मुश्किल से   1 0 0 ग्राम पके हुए चावल छोटी -सी प्लेट में थे। दूसरे 
शब्दों में 1 0 -1 2  चम्मच मात्र चावल थे। 8 5 रु खर्च करके भी मैं भूखा ही रह गया। मुझे बाद में पचास रु का 
चावल और खरीदना पड़ा। इस तरह मेरा खाना 1 3 5  रु 
का पड़ गया। अब इतने सारे सबूत होने के बाद क्या यह 
कहना सही नहीं है कि रेलवे विभाग के लिए आम जनता 
यात्री नहीं बल्कि एक उपभोक्ता मात्र है, जिनसे पानी  की बोतलों के नाम पर ,छपी कीमत से अधिक का सामान बेचकर, घटिया और महँगा खाना बेचकर उनकी 
जेब खाली की जा रही है।एक यात्री टिकट तो लेता है। मान  लो स्लीपर में  6 0 0  रु का लेकिन इस दौरान रेलवे द्वारा उपलब्ध करवाई जा रही खाने-पीने की चीज़ों पर ही उसके 1 5 0 0 -2 0 0 0  तक खर्च हो जाते हैं। जिनमें से गर्मी के दिनों में आधे से अधिक पैसे तो पानी की बोतलें खरीदने में ही खर्च हो जाते हैं।शेष खाने में खर्च हो जाता है। लेकिन जनता को अपने पैसों के हिसाब से वस्तुएं-सेवाएँ प्राप्त नहीं होती। रेल विभाग 
को इस सन्दर्भ में भारत की गरीब जनता के हितों को ध्यान में रखते हुए ट्रेन की पेंट्री में सस्ता और अच्छा 
खाना उपलब्ध करवाने की व्यवस्था करनी चाहिए।
साथ ही प्रत्येक स्टेशन पर शुद्ध पेय जल की भी पर्याप्त व्यवस्था करनी चाहिए। पानी के नल पर्याप्त मात्रा  में  लगाये जाने चाहिए जिससे  कि प्रत्येक कोच के यात्रियों को ज्यादा ढूंढना न पड़े। क्योंकि गाडी बहुत थोड़े समय के लिए ही रूकती है।पानी की बंद बोतलों की बिक्री को 
ज्यादा प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए।क्योंकि इन बंद बोतल कंपनियों के कारण पानी की बोतलों का ढेर का ढेर रोज़ निकलता है जो पर्यावरण के लिए काफी नुकसानदायक है।जगह -जगह बोतलें ही बोतलें नज़र आती हैं। जब यह बोतलें नदी नालों में जाती है तो नदी -नाले जाम हो जाते हैं।जिससे पानी सड़ने लगता है ,जिस कारण बीमारी फैलने का खतरा बराबर बना रहता है।
आप ट्रेन की यात्रा के दौरान रेलवे ट्रैक पर बोतलों के ढेर 
आसानी से देख सकते हैं। जिसे हम मात्र पानी समझकर 
2 0 रु में खरीद लेते हैं। यह  कंपनियाँ पानी से ही करोड़ों 
कमा रही हैं। अब आप सोच ही सकते हैं कि यदि रेल विभाग पीने के शुद्ध पानी की व्यवस्था ईमान दारी और सेवाभाव से स्टेशनों पर कर दे तो देश की आम जनता की मेहनत की करोड़ों की कमाई आसानी से बच सकती 
है। जिसे जनता दूसरे ज़रूरी कामों में खर्च कर महंगाई के समय  में थोड़ी राहत  ज़रूर पा  सकती है।