मंगलवार, 18 जून 2013

रेलवे और आम जनता

       रेलवे और आम जनता 
इंडियन रेलवे के स्टेशनों पर पीने के पानी का घोर आकाल है। गरीब से गरीब व्यक्ति भी 2 0 रु की  पानी की बोतल खरीदने पर मजबूर है।ताज्जुब की बात तो यह है कि लोगों को शुद्ध जल उपलब्ध करवाने की बजाए 
खुद रेल  विभाग ' रेल नीर ' पिला कर पानी से सोना बना रहा है और बहती गंगा में हाथ धो रहा है।आप भारत के 
किसी भी रेलवे स्टेशन पर चले जाइये आपको पानी के नल से ज्यादा पानी की बोतलों के  ब्रांड देखने को मिल जाएँगे। रेल विभाग की इस मेहरबानी के कारण आम जनता की मेहनत की  कमाई पानी की भेंट चढ़ जाती  है। 2 6  और 3 2  रूपए से ज्यादा कमाने वाले को तो सरकार ने अमीर मान ही लिया है। फिर तो 2 0 रु की 
पानी की बोतल खरीदने की हिम्मत करने वाली भारत की  आम जनता तो अत्यधिक अमीर की कटैगरी में आ 
जाएगी। इस हिसाब से तो हमारा भारत वास्तव में महान और रिच है। रेल विभाग को प्रत्येक रेलवे स्टेशन पर पीने के शुद्ध पानी की  व्यवस्था करनी चाहिए। फ़िल्टर वाटर      २-३  रु लीटर की  कीमत पर उपलब्ध करवाया जाना चाहिए। प्रत्येक यात्री  को शुद्ध  और पर्याप्त मात्र में  जल उपलब्ध करवाना रेलवे की जिम्मेदारी है। इस हेतु किराये में ४-५ रु अधिभार के रूप में लिए जा सकते हैं जिससे कि वाटर को फ़िल्टर करने का खर्च निकल आये। एक स्टेशन पर तो हद ही हो गई। गाड़ी रुकने पर जब मैं पानी भरने के लिए उतरा तो पाया कि  किसी भी नल  पर पानी नहीं आ रहा। मजबूरी में मुझे बीस रूपये की बोतल खरीदनी पड़ी जो कि  आसानी से उपलब्ध थी। मेरे हिसाब से रेलवे के लिए आम जनता यात्री नहीं मात्र उपभोक्ता है। मिसाल के तौर पर शुद्ध पानी चाहिए तो पैसे खर्च करो , शीतल पेय चाहिए तो छपी कीमत से अधिक भुगतान करो, खाने-पीने का कोई भी सामान आपको लेना हो आपको वास्तविक मूल्य  से अधिक कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी। यह आपकी मजबूरी है।आप कर भी क्या सकते हैं ? एक और बात मैं यहाँ शेयर कर रहा हूँ। 5 जून को दिल्ली से केरल जाने वाली केरला एक्सप्रेस में अपने परिवार  के साथ  स्लीपर क्लास में यात्रा कर रहा था। गर्मी बहुत अधिक थी लेकिन पानी की बोतल देने वाला कोई नहीं था। लोगों को पानी की बोतल खरीदने के लिए पेंट्री तक जाना पड़ रहा था। पेंट्री में पानी की बोतल खरीदने वालों की लाईन लगी हुई थी।
मौके का पूरा-पूरा फायदा उठाया जा रहा था।लोग अपने-अपने कोच से पानी खरीदने लिए पेंट्री में जा रहे थे। और 
पेंट्री के  लोग आराम फरमा रहे थे। शायद सोच रहे होंगे 
कि जिसको जरुरत होगी खुद आकर ले जायेगा हमें चक्कर लगाने की क्या ज़रूरत है ? दिलचस्प बात तो यह है कि बर्फ न होने का बहाना बनाकर गर्म पानी ही बेचा जा रहा था। गर्मी से बेहाल छोटे -छोटे बच्चों और बुजुर्गों की खातिर लोग गर्म पानी भी लेने को मजबूर थे।
मैंने I R C T C  पर शिकायत की लेकिन कोई फायदा 
नहीं हुआ। इसके अलावा जो खाना स्लीपर क्लास में सप्लाई किया जाता है। उसकी क्वालिटी अच्छी  नहीं होती।मात्रा  भी बहुत ही कम होती है। एक आदमी का पेट शायद ही भर पाता हो। साथ में जो पानी होना चाहिए वह भी दिया नहीं जाता बार -बार मांगना पड़ता 
है। पानी तब आता है जब खाना खाकर बोतल खरीदी जा 
चुकी होती है। 1 6 जून को पोरबंदर से दिल्ली सराय रोहिल्ला के लिए चलने वाली पोरबंदर एक्सप्रेस में मैं 
S -3 (5 -6 ) में यात्रा कर रहा था। मैंने जो खाना लिया वेज की थाली 8 5  रुपये की थी जिसमें पतले -पतले दो 
पराठे ,मटर-पनीर की सब्जी,दाल के साथ मुश्किल से   1 0 0 ग्राम पके हुए चावल छोटी -सी प्लेट में थे। दूसरे 
शब्दों में 1 0 -1 2  चम्मच मात्र चावल थे। 8 5 रु खर्च करके भी मैं भूखा ही रह गया। मुझे बाद में पचास रु का 
चावल और खरीदना पड़ा। इस तरह मेरा खाना 1 3 5  रु 
का पड़ गया। अब इतने सारे सबूत होने के बाद क्या यह 
कहना सही नहीं है कि रेलवे विभाग के लिए आम जनता 
यात्री नहीं बल्कि एक उपभोक्ता मात्र है, जिनसे पानी  की बोतलों के नाम पर ,छपी कीमत से अधिक का सामान बेचकर, घटिया और महँगा खाना बेचकर उनकी 
जेब खाली की जा रही है।एक यात्री टिकट तो लेता है। मान  लो स्लीपर में  6 0 0  रु का लेकिन इस दौरान रेलवे द्वारा उपलब्ध करवाई जा रही खाने-पीने की चीज़ों पर ही उसके 1 5 0 0 -2 0 0 0  तक खर्च हो जाते हैं। जिनमें से गर्मी के दिनों में आधे से अधिक पैसे तो पानी की बोतलें खरीदने में ही खर्च हो जाते हैं।शेष खाने में खर्च हो जाता है। लेकिन जनता को अपने पैसों के हिसाब से वस्तुएं-सेवाएँ प्राप्त नहीं होती। रेल विभाग 
को इस सन्दर्भ में भारत की गरीब जनता के हितों को ध्यान में रखते हुए ट्रेन की पेंट्री में सस्ता और अच्छा 
खाना उपलब्ध करवाने की व्यवस्था करनी चाहिए।
साथ ही प्रत्येक स्टेशन पर शुद्ध पेय जल की भी पर्याप्त व्यवस्था करनी चाहिए। पानी के नल पर्याप्त मात्रा  में  लगाये जाने चाहिए जिससे  कि प्रत्येक कोच के यात्रियों को ज्यादा ढूंढना न पड़े। क्योंकि गाडी बहुत थोड़े समय के लिए ही रूकती है।पानी की बंद बोतलों की बिक्री को 
ज्यादा प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए।क्योंकि इन बंद बोतल कंपनियों के कारण पानी की बोतलों का ढेर का ढेर रोज़ निकलता है जो पर्यावरण के लिए काफी नुकसानदायक है।जगह -जगह बोतलें ही बोतलें नज़र आती हैं। जब यह बोतलें नदी नालों में जाती है तो नदी -नाले जाम हो जाते हैं।जिससे पानी सड़ने लगता है ,जिस कारण बीमारी फैलने का खतरा बराबर बना रहता है।
आप ट्रेन की यात्रा के दौरान रेलवे ट्रैक पर बोतलों के ढेर 
आसानी से देख सकते हैं। जिसे हम मात्र पानी समझकर 
2 0 रु में खरीद लेते हैं। यह  कंपनियाँ पानी से ही करोड़ों 
कमा रही हैं। अब आप सोच ही सकते हैं कि यदि रेल विभाग पीने के शुद्ध पानी की व्यवस्था ईमान दारी और सेवाभाव से स्टेशनों पर कर दे तो देश की आम जनता की मेहनत की करोड़ों की कमाई आसानी से बच सकती 
है। जिसे जनता दूसरे ज़रूरी कामों में खर्च कर महंगाई के समय  में थोड़ी राहत  ज़रूर पा  सकती है। 



   

   
        


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